Friday 8 June 2018

सीख-

सीख-
एक आदमी ने एक बहुत ही खूबसूरत लड़की से शादी की। शादी के बाद दोनो की ज़िन्दगी बहुत प्यार से गुजर रही थी। वह उसे बहुत चाहता था और उसकी खूबसूरती की हमेशा तारीफ़ किया करता था। लेकिन कुछ महीनों के बाद लड़की चर्मरोग (skinDisease) से ग्रसित हो गई और धीरे-धीरे उसकी खूबसूरती जाने लगी। खुद को इस तरह देख उसके मन में डर समाने लगा कि यदि वह बदसूरत हो गई, तो उसका पति उससे नफ़रत करने लगेगा और वह उसकी नफ़रत बर्दाशत नहीं कर पाएगी।

इस बीच एकदिन पति को किसी काम से शहर से बाहर जाना पड़ा। काम ख़त्म कर जब वह घर वापस लौट रहा था, उसका accident हो गया। Accident में उसने अपनी दोनो आँखें खो दी। लेकिन इसके बावजूद भी उन दोनो की जिंदगी सामान्य तरीके से आगे बढ़ती रही। समय गुजरता रहा और अपने चर्मरोग के कारण लड़की ने अपनी खूबसूरती पूरी तरह गंवा दी। वह बदसूरत हो गई, लेकिन अंधे पति को इस बारे में कुछ भी पता नहीं था। इसलिए इसका उनके खुशहाल विवाहित जीवन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा।

वह उसे उसी तरह प्यार करता रहा। एकदिन उस लड़की की मौत हो गई। पति अब अकेला हो गया था। वह बहुत दु:खी था. वह उस शहर को छोड़कर जाना चाहता था।

उसने अंतिम संस्कार की सारी क्रियाविधि पूर्ण की और शहर छोड़कर जाने लगा. तभी एक आदमी ने पीछे से उसे पुकारा और पास आकर कहा, “अब तुम बिना सहारे के अकेले कैसे चल पाओगे? इतने साल तो तुम्हारी पत्नितुम्हारी मदद किया करती थी.” पति ने जवाब दिया, “दोस्त! मैं अंधा नहीं हूँ। मैं बस अंधा होने का नाटक कर रहा था। क्योंकि यदि मेरी पत्नि को पता चल जाता कि मैं उसकी बदसूरती देख सकता हूँ, तो यह उसे उसके रोग से ज्यादा दर्द देता।
इसलिए मैंने इतने साल अंधे होने का दिखावा किया. वह बहुत अच्छी पत्नि थी. मैं बस उसे खुश रखना चाहता था.” .. ...

सीख-- खुश रहने के लिए हमें भी एक दूसरे की कमियो के प्रति आखे बंद कर लेनी चाहिए.. और उन कमियो को नजरन्दाज कर देना चाहिए... 
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पर्ची की आख़री लाइन पढ़ते पढ़ते रागिनी की भी आंखे नम हो गई



मुझे अगले संडे को किटी पार्टी में जाना है सुदेश,तुम तो जानते हो मेरी फ्रेंड्स किटी में कितनी सज सवंर कर आती है ...और मैंने तो अभी तक भी शॉपिंग नहीं की है..... रागिनी आईना के सामने खड़ी होकर साड़ी के पल्लू अपने कंधे पर सलीके से जमाते हुए बोली...., सुदेश इस बार मैं किटी शॉपिंग के लिए बहुत लेट हो गयी हूँ.... और किटी के बाद मुझे कच्ची बस्ती के बच्चों के पास भी जाना है...वहाँ मैं कुछ न्यूज़ पेपर वालो को भी बुलाऊंगी अगले दिन के न्यूज़ पेपर में मेरी फोटो के लिए ......अब देखो ना सुदेश , मिसेस सक्सेना ने तो वृद्धाश्रम जाकर मिठाई और कपड़े बाँट कर, अपनी पोस्ट कल ही फेसबुक पर डाल भी दी.... और मिसेस शर्मा भी अनाथालय में गिफ्ट बांटती हुई अपनी फोटो इंस्टाग्राम में डाली है,..हर शुभ काम मेरे दिमाग में लेट ही आता है ...... सुदेश तुम सुन भी रहे हो मै क्या बोल रही हूँ...... सुदेश झुंझला कर बोला हां यार सुन रहा हूँ मैंने तुझे कब मना किया था, शॉपिंग के लिए, ड्राइवर को ले lके चली जाती और तुम भी किसी आश्रम में दें आती जो तुम्हें देना है, और अपनी नेकी करती तस्वीरें डाल देतीं फेसबुक और न्यूज़ पेपर में .... मुझे क्यूँ सुना रही हो.... शर्ट की बटन लगाते हुए सुदेश बोला अब और कितनी देर लगाओगी तैयार होने में..... मुझे आज ही अपने स्टाफ को बोनस बांटने भी जाना है जल्दी करो मेरे पास....." टाईम" नहीं है... कह कर रूम से बाहर निकल गया सुदेश तभी बाहर लॉन मे बैठी "माँ" पर नजर पड़ी,,, कुछ सोचते हुए वापिस रूम में आया।....रागिनी हम शॉपिंग के लिए जा रहे है.... क्या तुमने माँ से पूछा कि उसको भी कुछ चाहिए क्या .... रागिनी बोली.... नहीं ...वैसे भी अब उनको इस उम्र मे क्या चाहिए यार, दो वक्त की रोटी और दो जोड़ी कपड़े इसमे पूछने वाली क्या बात है..... वो बात नहीं है रागिनी ... "माँ पहली बार गर्मियों की छुट्टियों में हमारे घर रुकी हुई है" वरना तो हर बार गाँव में ही रहती है तो... औपचारिकता के लिए ही पूछ लेती......... अरे, इतना ही माँ पर प्यार उमड़ रहा है तो खुद क्यूँ नही पूछ लेते ....झल्लाकर चीखी थी रागिनी , और कंधे पर हेंड बैग लटकाते हुए तेजी से बाहर निकल गयी...... सुदेश माँ के पास जाकर बोला माँ .....मैं और रागिनी उसकी शॉपिंग के लिए बाजार जा रहे हैं आपको कुछ चाहिए तो..... माँ बीच में ही बोल पड़ी मुझे कुछ नही चाहिए बेटा.... सोच लो माँ अगर कुछ चाहिये तो बता दीजिए..... सुदेश के बहुत जोर देने पर माँ बोली ठीक है तुम रुको मै लिख कर दे देती हूँ, तुम्हें और बहू को बहुत खरीदारी करनी है कहीं भूल ना जाओ कहकर, सुदेश की माँ अपने कमरे में चली गई, कुछ देर बाद बाहर आई और लिस्ट सुदेश को थमा दी।..
*
सुदेश ड्राइविंग सीट पर बैठते हुए बोला, देखा रागिनी.... माँ को भी कुछ चाहिए था पर बोल नही रही थी मेरे जिद्द करने पर लिस्ट बना कर दी है,,..... "इंसान जब तक जिंदा रहता है, रोटी और कपड़े के अलावा भी बहुत कुछ चाहिये होता है" .....अच्छा बाबा ठीक है पर पहले मैं अपनी जरूरत की सारी सामान लूँगी बाद में आप अपनी माँ का लिस्ट देखते रहना कह कर कार से बाहर निकल गयी.... पूरी खरीदारी करने के बाद रागिनी बोली अब मैं बहुत थक गयी हूँ, मैं कार में Ac चालू करके बैठती हूँ आप माँ जी का सामान देख लो,,, अरे रागिनी तुम भी रुको फिर साथ चलते हैं मुझे भी जल्दी है,..... देखता हूँ माँ ने क्या मंगाया है... कहकर सुदेश ने माँ की लिखी पर्ची जेब से निकाली , .....बाप रे इतनी लंबी लिस्ट पता नही क्या क्या मंगाया होगा ..... जरूर अपने गाँव वाले छोटे बेटे के परिवार के लिए बहुत सारे सामान मंगाया होगा ....... और बनो "श्रवण कुमार" कहते हुए गुस्से से सुदेश की ओर देखने लगी,......
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पर ये क्या सुदेश की आंखों में आंसू........ और लिस्ट पकड़े हुए सुदेश का हाथ सूखे पत्ते की तरह हिल रहा था... पूरा शरीर काँप रहा था,, रागिनी बहुत घबरा गयी क्या हुआ ऐसा क्या मांग ली है तुम्हारी माँ ने.... कह कर सुदेश की हाथ से पर्ची झपट ली.... हैरान थी रागिनी भी इतनी बड़ी पर्ची में बस चंद शब्द ही लिखे थे..... पर्ची में लिखा था....
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बेटा सुदेश मुझे तुमसे किसी भी अवसर पर कुछ नहीं चाहिए फिर भी तुम जिद्द कर रहे हो तो, और तुम्हारे "शहर की किसी दुकान में अगर मिल जाए तो फुर्सत के कुछ" पल "मेरे लिए लेते आना.... ढलती साँझ हो गयी हूँ अब मैं सुदेश , मुझे गहराते अँधियारे से डर लगने लगा है, बहुत डर लगता है पल पल मेरी तरफ बढ़ रही मौत को देखकर.. जानती हूँ मौत को टाला नही जा सकता शाश्वत सत्य है,...... पर अकेले पन से बहुत घबराहट होती है सुदेश ...... इसलिए बेटा जब तक तुम्हारे घर पर हूँ कुछ पल बैठा कर मेरे पास कुछ देर के लिए ही सही बाँट लिया कर मेरे बुढ़ापे का अकेलापन अपने साथ ... बिन दीप जलाए ही रौशन हो जाएगी मेरी जीवन की साँझ बेटा ..... कितने साल हो गए बेटा तूझे स्पर्श ही नहीं किया ... एकबार फिर से आ.... मेरी गोद में सर रख और मै ममता भीजे हथेली से सहलाऊँ तेरे सर को..... एक बार फिर से इतराए मेरा हृदय मेरे अपनों को करीब बहुत करीब पा कर बेटा ...और फिर मुस्कुरा कर मिलूं मौत के गले ....क्या पता बेटा अगली गर्मी की छुट्टियों तक रहूँ या ना रहूँ, .......
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पर्ची की आख़री लाइन पढ़ते पढ़ते रागिनी की भी आंखे नम हो गई ....

Wednesday 6 June 2018

"सीख"



कहानी कुछ लम्बी है

पढ़ना अवश्य।

"सीख"
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भोर के समय सूर्यदेवता ने अपना प्रसार क्षेत्र विस्तृत करना आरंभ कर दिया था. सत्य कुमार बालकनी में आंखें मूंदे बैठे थे, तभी किचन से उनकी धर्मपत्नी सुधा चाय लेकर आई ।

“लो, ऐसे कैसे बैठे हो, अभी तो उठे हो, फिर आंख लग गई क्या? क्या बात है, तबियत ठीक नहीं लग रही है क्या?” सुधा ने मेज़ पर चाय की ट्रे रखते हुए पूछा. सत्य कुमार ने धीमे से आंखें खोलकर उन्हें देखा और पुन: आंखें मूंद लीं.

सुधा कप में चाय उड़ेलते हुए दबे स्वर में बोलने लगी,

“मुझे मालूम है, दीपू का वापस जाना आपको खल रहा है. मुझे भी अच्छा नहीं लग रहा है, लेकिन क्या करें. हर बार ऐसा ही होता है- बच्चे आते हैं, कुछ दिनों की रौनक होती है और वे चले जाते हैं.”

मेरठ यूनिवर्सिटी के रिटायर्ड प्रवक्ता और लेखक सत्य कुमार की विद्वत्ता उनके चेहरे से साफ़ झलकती थी. उनकी पुस्तकों से आनेवाली रॉयल्टी रिटायरमेंट के बाद पनपनेवाले अर्थिक अभावों को दूर फेंकने में सक्षम थी. उनके दो बेटों में छोटा सुदीप अपनी सहपाठिनी के साथ प्रेम -विवाह कर मुम्बई में सेटल हो गया था. विवाह के बाद वो उनसे ज़्यादा मतलब नहीं रखता था. बड़ा बेटा दीपक कंप्यूटर इंजीनियर था. उसने अपने माता-पिता की पसंद से अरेन्ज्ड मैरिज की थी. उसकी पत्नी मधु सुंदर, सुशील और हर काम में निपुण, अपने सास-ससुर की लाडली बहू थी. दीपक और मधु कुछ वर्षों से लंदन में थे और दोनों वहीं सेटल होने की सोच रहे थे.

दीपक का लंदन रुक जाना सत्य कुमार को अच्छा नहीं लगा, मगर सुधा ने उन्हें समझा दिया था कि अपनी ममता को बच्चों की तऱक़्क़ी के आड़े नहीं लाना चाहिए और वैसे भी वो लंदन रहेगा तो भी क्या, आपके रिटायरमेंट के बाद हम ही उसके पास चले जाएंगे. दीपक और मधु उनके पास साल में एक बार 10-15 दिनों के लिए अवश्य आते और उनसे साथ लंदन चलने का अनुरोध करते. मधु जितने दिन वहां रहती, अपने सास-ससुर की ख़ूब सेवा करती.

आज सत्य कुमार को रिटायर हुए पूरे दो वर्ष हो चुके थे, मगर इन दो वर्षों में दीपक ने उन्हें लंदन आने के लिए भूले से भी नहीं कहा था. सुधा उनसे बार-बार ज़िद किया करती थी, ‘चलो हम ही लंदन चलें’, लेकिन वो बड़े ही स्वाभिमानी व्यक्ति थे और बिना बुलावे के कहीं जाना स्वयं का अपमान समझते थे.

उनकी बंद आंखों के पीछे कल रात के उस दृश्य की बारम्बार पुनरावृत्ति हो रही थी, जो उन्होंने दुर्भाग्यवश अनजाने में देखा था… दीपक और मधु अपने कमरे में वापसी के लिए पैकिंग कर रहे थे, दोनों में कुछ बहस छिड़ी हुई थी,

“देखो-तुम भूले से भी मम्मी-पापा को लंदन आने के लिए मत कहना, वो दोनों तो कब से तुम्हारी पहल की ताक में बैठे हैं, मुझसे उनके नखरे नहीं उठाए जाएंगे… मुझे ही पता है, मैं यहां कैसे 15-20 दिन निकालती हूं. सारा दिन नौकरानियों की तरह पिसते रहो, फिर भी इनके नखरे ढीले नहीं होते. चाहो तो हर महीने कुछ पैसे भेज दिया करो, हमें कहीं कोई कमी नहीं आएगी…” मधु बार-बार गर्दन झटकते हुए बड़बड़ाए जा रही थी.

“कैसी बातें कर रही हो? मुझे तुम्हारी उतनी ही चिन्ता है जितनी कि तुम्हें. तुम फ़िक्र मत करो, मैं उनसे कभी नहीं कहूंगा. मुझे पता है, पापा बिना कहे लंदन कभी नहीं आएंगे.”

दीपक मधु के गालों को थपथपाता हुआ उसे समझा रहा था.

“मुझे तो ख़ुद उनके साथ एडजस्ट करने में द़िक़्क़त होती है. वे अभी भी हमें बच्चा ही समझते हैं. अपने हिसाब से ही चलाना चाहते हैं. समझते ही नहीं कि उनकी लाइफ़ अलग है, हमारी लाइफ़ अलग… उनकी इसी आदत की वजह से सुदीप ने भी उनसे कन्नी काट ली…” दीपक धाराप्रवाह बोलता चला जा रहा था. दोनों इस बात से बेख़बर थे कि दरवाज़े के पास खड़े सत्य बुत बने उनके इस वार्तालाप को सुन रहे थे.

सत्य कुमार सन्न थे… उनका मस्तिष्क कुछ सोचने-समझने के दायरे से बाहर जा चुका था, अत: वो उन दोनों के सामने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं कर पाए. उनको सी-ऑफ़ करने तक का समय उन्होंने कैसे कांटों पर चलकर गुज़ारा था, ये बस उनका दिल ही जानता था. दीपक और मधु जिनकी वो मिसाल दिया करते थे, उन्हें इतना बड़ा धोखा दे रहे थे… जाते हुए दोनों ने कितने प्यार और आदर के साथ उनके पैर छुए थे. ये प्यार… ये अपनापन… सब दिखावा… छि:… उनका मन पुन: घृणा और क्षोभ से भर उठा. वो यह भी तय नहीं कर पा रहे थे कि सुधा को इस बारे में बताएं अथवा नहीं, ये सोचकर कि क्या वो यह सब सह पाएगी… सत्य बार-बार बीती रात के घटनाक्रम को याद कर दुख के महासागर में गोते लगाने लगे.

समय अपनी ऱफ़्तार से गुज़रता जा रहा था, मगर सत्य कुमार का जीवन जैसे उसी मोड़ पर थम गया था. अपनी आन्तरिक वेदना को प्रत्यक्ष रूप से बाहर प्रकट नहीं कर पाने के कारण वो भीतर-ही-भीतर घुटते जा रहे थे. उस घटना के बाद उनके स्वभाव में भी काफ़ी नकारात्मक परिवर्तन आ गया. दुख को भीतर-ही-भीतर घोट लेने के कारण वे चिड़चिड़े होते जा रहे थे. बच्चों से मिली उपेक्षा से स्वयं को अवांछित महसूस करने लगे थे. धीरे-धीरे सुधा भी उनके दर्द को महसूस करने लगी. दोनों मन-ही-मन घुटते, मगर एक-दूसरे से कुछ नहीं कहते. लेकिन अभी भी उनके दिल के किसी कोने में उम्मीद की एक धुंधली किरण बाकी थी कि शायद कभी किसी दिन बच्चों को उनकी ज़रूरत महसूस हो और वो उन्हें जबरन अपने साथ ले जाएं, ये उम्मीद ही उनके अंत:करण की वेदना को और बढ़ा रही थी.

एक दिन सत्य कुमार किसी काम से हरिद्वार जा रहे थे. उन्हें चले हुए 3-4 घंटे हो चुके थे, तभी कार से अचानक खर्र-खर्र की आवाज़ें आने लगीं. इससे पहले कि वो कुछ समझ पाते, कार थोड़ी दूर जाकर रुक गई और दोबारा स्टार्ट नहीं हुई. सिर पर सूरज चढ़कर मुंह चिढ़ा रहा था. पसीने से लथपथ सत्य लाचार खड़े अपनी कार पर झुंझला रहे थे.

“थोड़ा पानी पी लीजिए.” सुधा पानी देते हुए बोली “काश, कहीं छाया मिल जाए.” सुधा साड़ी के पल्लू से मुंह पोंछती हुई इधर-उधर नज़रें दौड़ाने लगी.

“मेरा तो दिमाग़ ही काम नहीं कर रहा है… ये सब हमारे साथ ही क्यों होता है…? क्या भगवान हमें बिना परेशान किए हमारा कोई काम पूरा नहीं कर सकता?” ख़ुद को असहाय पाकर सत्य कुमार ने भगवान को ही कोसना शुरू कर दिया.

“देखो, वहां दूर एक पेड़ है, वहां दो-तीन छप्पर भी लगे हैं, वहीं चलते हैं. शायद कुछ मदद मिल जाए…” सुधा ने दूर एक बड़े बरगद के पेड़ की ओर इशारा करते हुए कहा. दोनों बोझिल क़दमों से उस दिशा में बढ़ने लगे.
वहां एक छप्पर तले चाय की छोटी-सी दुकान थी, जिसमें दो-तीन टूटी-फूटी बेंचें पड़ी थीं. उन पर दो ग्रामीण बैठे चाय पी रहे थे. वहीं पास में एक बुढ़िया कुछ गुनगुनाती हुई उबले आलू छील रही थी. दुकान में एक तरफ़ एक टूटे-फूटे तसले में पानी भरा था, उसके पास ही अनाज के दाने बिखरे पड़े थे. कुछ चिड़िया फुदककर तसले में भरा पानी पी रही थीं और कुछ बैठी पेटपूजा कर रही थीं. साथ लगे पेड़ से बार-बार गिलहरियां आतीं, दाना उठातीं और सर्र से वापस पेड़ पर चढ़ जातीं. पेड़ की शाखाओं के हिलने से ठंडी हवा का झोंका आता जो भरी दोपहरी में बड़ी राहत दे रहा था. शाखाओं के हिलने से, पक्षियों की चहचहाहट से, गिलहरियों की भाग-दौड़ से उपजे मिश्रित संगीत की गूंज अत्यंत कर्णप्रिय लग रही थी. सुधा आंखें मूंदे इस संगीत का आनंद लेने लगी.

“क्या चाहिए बाबूजी, चाय पीवो?”

बुढ़िया की आवाज़ से सुधा की तंद्रा टूटी. वो सत्य कुमार की ओर देखते हुए बोली,

“आप चाय के साथ कुछ लोगे क्या?”

“नहीं.” सत्य कुमार ने क्रोध भरा टका-सा जवाब दिया.

"बाबूजी, आपकी सकल बतावे है कि आप भूखे भी हो और परेसान भी, खाली पेट तो रत्तीभर परेसानी भी पहाड़ जैसी दिखे है. पेट में कुछ डाल लो. सरीर भी चलेगा और दिमाग़ भी, हा-हा-हा…” बुढ़िया इतना कह कर खुलकर हंस पड़ी.

बुढ़िया की हंसी देखकर सत्य कुमार तमतमा गए. लो पड़ गई आग में आहुति, सुधा मन में सोचकर सहम गई. वो मुंह से कुछ नहीं बोले, लेकिन बुढ़िया की तरफ़ घूरकर देखने लगे.
बुढ़िया चाय बनाते-बनाते बतियाने लगी,

“बीबीजी, इस सुनसान जगह में कैसे थमे, क्या हुआ?”

"दरअसल हम यहां से गुज़र रहे थे कि हमारी गाड़ी ख़राब हो गयी. पता नहीं यहां आसपास कोई मैकेनिक भी मिलेगा या नहीं.” सुधा ने लाचारी प्रकट करते हुए पूछा.

“मैं किसी के हाथों मैकेनिक बुलवा लूंगी. आप परेसान ना होवो.” बुढ़िया उन्हें चाय और भजिया पकड़ाते हुए बोली.

“अरे ओ रामसरन, इधर आइयो…” बुढ़िया दूर खेत में काम कर रहे व्यक्ति की ओर चिल्लाई. “भाई, इन भले मानस की गाड़ी ख़राब हो गयी है, ज़रा टीटू मैकेनिक को तो बुला ला… गाड़ी बना देवेगा…इस विराने में कहां जावेंगे बिचारे.” बुढ़िया के स्वर में ऐसा विनयपूर्ण निवेदन था जैसे उसका अपना काम ही फंसा हो.

_बाबूजी चिन्ता मत करो, टीटू ऐसा बच्चा है, जो मरी कैसी भी बिगड़ी गाड़ी को चलता कर देवे है.” इतना कह बुढ़िया चिड़ियों के पास बैठ ज्वार-बाजरे के दाने बिखेरने लगी. “अरे मिठ्ठू, आज मिठ्ठी कहां है?” वो एक चिड़िया से बतियाने लगी.
सत्य को उसका यह व्यवहार कुछ सोचने पर मजबूर कर रहा था. ऐसी बुढ़िया जिसकी शारीरिक और भौतिक अवस्था अत्यंत जर्जर है, उसका व्यवहार, उसकी बोलचाल इतनी सहज, इतनी उन्मुक्त है जैसे कभी कोई दुख का बादल उसके ऊपर से ना गुज़रा हो, कितनी शांति है उसके चेहरे पर.

“माई, तुम्हारा घर कहां है? यहां तो आसपास कोई बस्ती नज़र नहीं आती, क्या कहीं दूर रहती हो?” सत्य कुमार ने विनम्रतापूर्वक प्रश्‍न किया.

“बाबूजी, मेरा क्या ठौर-ठिकाना, कोई गृहसती तो है ना मेरी, जो कहीं घर बनाऊं? सो यहीं इस छप्पर तले मौज़ से रहू हूं. भगवान की बड़ी किरपा है.” सत्य कुमार का ध्यान बुढ़िया के मुंह से निकले 'मौज़’ शब्द पर अटका. भला कहीं इस शमशान जैसे वीराने में अकेले रहकर भी मौज़ की जा सकती है. वो बुढ़िया द्वारा कहे गए कथन का विश्‍लेषण करने लगे, उन्हें इस बुढ़िया का फक्कड़, मस्ताना व्यक्तित्व अत्यंत रोचक लग रहा था.

“यहां निर्जन स्थान पर अकेले कैसे रह लेती हो माई, कोई परेशानी नहीं होती क्या?” सत्य कुमार ने उत्सुकता से पूछा.

“परेसानी…” बुढ़िया क्षण भर के लिए ठहरी, “परेसानी काहे की बाबूजी, मजे से रहूं हूं, खाऊं हूं, पियूं हूं और तान के सोऊं हूं… देखो बाबूजी, मानस जन ऐसा प्रानी है, जो जब तक जिए है परेसानी-परेसानी चिल्लाता फिरे है, भगवान उसे कितना ही दे देवे, उसका पेट नहीं भरे है. मैं पुछू हूं, आख़िर खुस रहने को चाहवे ही क्या, ज़रा इन चिड़ियों को देखो, इन बिचारियों के पास क्या है. पर ये कैसे खुस होकर गीत गावे हैं.”

सत्य कुमार को बुढ़िया की सब बातें ऊपरी कहावतें लग रही थीं.

“पर माई, अकेलापन तो लगता होगा ना?” सत्य कुमार की आंखों में दर्द झलक उठा.

“अकेलापन काहे का बाबूजी, दिन में तो आप जैसे भले मानस आवे हैं. चाय पीने वास्ते, गांववाले भी आते-जाते रहवे हैं और ये मेरी चिड़कल बिटिया तो सारा दिन यहीं डेरा डाले रखे है.” बुढ़िया पास फुदक रही चिड़ियों पर स्नेहमयी दृष्टि डालते हुए बोली.

क्या इतना काफ़ी है अकेलेपन के एहसास पर विजय प्राप्त करने के लिए, सत्य कुमार के मन में विचारों का मंथन चल रहा था. उनके पास तो सब कुछ है- घर-बार, दोस्तों का अच्छा दायरा, उनके सुख-दुख की साथी सुधा, फिर क्यों उन्हें मात्र बच्चों की उपेक्षा से अकेलेपन का एहसास सांप की तरह डसता है?

"अकेलापन, परेसानी, ये सब फालतू की बातें हैं बाबूजी. जिस मानस को रोने की आदत पड़ जावे है ना, वो कोई-ना-कोई बहाना ढूंढ़ ही लेवे है रोने का.” बुढ़िया की बातें सुन सत्य कुमार अवाक् रह गए. उन्हें लगा जैसे बुढ़िया ने सीधे-सीधे उन्हीं पर पत्थर दे मारा हो.

क्या सचमुच हर व़क़्त रोना, क़िस्मत को और दूसरों को दोष देना उनकी आदत बन गई है? क्यों उनका मन इतना व्याकुल रहता है…? सत्य कुमार के मन में उद्वेगों का एक और भंवर चल पड़ा.

“माई, तुम्हारा घर-बार कहां है, कोई तो होगा तुम्हारा सगा-संबंधी?” सत्य कुमार ने अपनी पूछताछ का क्रम ज़ारी रखा.

बुढ़िया गर्व से गर्दन अकड़ाते हुए बोली,

“है क्यों नहीं बाबूजी, पूरा हरा-भरा कुनबा है मेरा. भगवान सबको बरकत दे. बाबूजी, मेरे आदमी को तो मरे ज़माना बीत गया. तीन बेटे और दो बेटियां हैं मेरी. नाती-पोतोंवाली हूं, सब सहर में बसे हैं और अपनी-अपनी गृहस्ती में मौज करे हैं.” बुढ़िया कुछ देर के लिए रुककर फिर बोली,

“मेरा एक बच्चा फौज में था, पिछले साल कसमीर में देस के नाम सहीद हो गया. भगवान उसकी आतमा को सान्ति देवे.”

बुढ़िया की बात सुन दोनों हतप्रभ रह गए और एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे. इतनी बड़ी बात कितनी सहजता से कह गई थी वो और उसके चाय बनाने के क्रम में तनिक भी व्यवधान नहीं पड़ा था. वो पूरी तरह से सामान्य थी. ना चेहरे पर शिकन…. ना आंखों में नमी…

क्या इसे बच्चों का मोह नहीं होता? सत्य कुमार मन-ही-मन सोचने लगे,

“तुम अपने बेटों के पास क्यों नहीं रहती हो?” उन्होंने एक बड़े प्रश्‍नचिह्न के साथ बुढ़िया से पूछा.

"नहीं बाबूजी… अब कौन उस मोह-माया के जंजाल में उलझे… सब अपने-अपने ढंग से अपनी गृहस्ती चलावे हैं. अपनी-अपनी सीमाओं में बंधे हैं. मैं साथ रहन लगूंगी, तो अब बुढ़ापे में मुझसे तो ना बदला जावेगा, सो उन्हें ही अपने हिसाब से चलाने की कोसिस करूंगी. ख़ुद भी परेसान रहूंगी और उन्हें भी परेसान करूंगी. मैं तो यहीं अपनी चिड़कल बिटियों के साथ भली….” बुढ़िया दोनों हाथ ऊपर उठाते हुए बोली. “अरे मेरी बिट्टू आ गई, आज तेरे बच्चे संग नहीं आए? कहीं तेरा साथ छोड़ फुर्र तो नहीं हो गये?” बुढ़िया एक चिड़िया की ओर लपकी.

“बाबूजी, देखो तो मेरी बिट्टू को… इसके बच्चे इससे उड़ना सीख फुर्र हो गए, तो क्या ये परेसान हो रही है? रोज़ की तरह अपना दाना-पानी लेने आयी है और चहके भी है. ये तो प्रकृति का नियम है बाबूजी, ऐसा ही होवे है. इस बारे में सोच के क्या परेसान होना.”

बुढ़िया ने सीधे सत्य और सुधा की दुखती रग पर हाथ रख दिया. यही तो था उनके महादुख का मूल, उनके बच्चे उड़ना सीख फुर्र हो गए थे.

“बाबूजी, संसार में हर जन अकेला आवे है और यहां से अकेला ही जावे है. भगवान हमारे जरिये से दुनिया में अपना अंस (अंश) भेजे हैं, मगर हम हैं कि उसे अपनी जायदाद समझ दाब लेने की कोसिस करे हैं. सो सारी ऊमर उसके पीछे रोते-रोते काट देवे हैं. जो जहां है, जैसे जीवे है जीने दो और ख़ुद भी मस्ती से जीवो. ज़ोर-ज़बरदस्ती का बन्धन तो बाबूजी कैसा भी हो, दुखे ही है. प्यार से कोई साथ रहे तो ठीक, नहीं तो तू अपने रस्ते मैं अपने रस्ते…” बुढ़िया एक दार्शनिक की तरह बेफ़िक्री-से बोले चली जा रही थी और वो दोनों मूक दर्शक बने सब कुछ चुपचाप सुन रहे थे. उसकी बातें सत्य कुमार के अंतर्मन पर गहरी चोट कर रही थी.

ये अनपढ़ मरियल-सी बुढ़िया ऐसी बड़ी-बड़ी बातें कर रही है. इस ढांचा शरीर में इतना प्रबल मस्तिष्क. क्या सचमुच इस बुढ़िया को कोई मानसिक कष्ट नहीं है…? बुढ़िया के कड़वे, लेकिन सच्चे वचन सत्य कुमार के मन पर भीतर तक असर डाल रहे थे.

“लो रामसरन आ गया.” बुढ़िया की उत्साहपूर्ण आवाज़ से दोनों की ध्यानमग्नता टूटी.
आज सत्य कुमार को बुढ़िया के व्यक्तित्व के सामने स्वयं का व्यक्तित्व बौना प्रतीत हो रहा था. आज महाज्ञानी सत्य कुमार को एक अनपढ़, अदना-सी बुढ़िया से तत्व ज्ञान मिला था. आज बुढ़िया का व्यवहार ही उन्हें काफ़ी सीख दे गया था. सत्य कुमार महसूस कर रहे थे जैसे उनके चारों ओर लिपटे अनगिनत जाले एक-एक करके हटते जा रहे हों. अब वो अपने अंतर्मन की रोशनी में सब कुछ स्पष्ट देख पा रहे थे. जो पास नहीं हैं, उसके पीछे रोते-कलपते और जो है उसका आनंद न लेने की भूल उन्हें समझ आ गई थी.

“बाबूजी, कार ठीक हो गई है.” मैकेनिक की आवाज़ से सत्य कुमार विचारों के आकाश से पुन: धरती पर आए.

“आपका बहुत-बहुत धन्यवाद.” सत्य कुमार ने मुस्कुराहट के साथ मैकेनिक
का अभिवादन किया. उनके चेहरे से दुख और परेशानी के भाव गायब हो चुके थे. दोनों कार में बैठ गए. सत्य ने वहीं से बुढ़िया पर आभार भरी दृष्टि डाली और कार वापस घुमा ली.

“अरे, यह क्या, हरिद्वार नहीं जाना क्या?” सुधा ने घबराकर पूछा.

“नहीं.” सत्य कुमार ने बड़े ज़ोश के साथ उत्तर दिया. “हम हरिद्वार नहीं जा रहे हैं.” थोड़ा रुककर पुन: बोले, “हम मसूरी जा रहे हैं घूमने-फिरने. काम तो चलते ही रहते हैं. कुछ समय अपने लिए भी निकाला जाए.”

सत्य कुमार कुछ गुनगुनाते हुए ड्राइव कर रहे थे और सुधा उन्हें विस्मित् नेत्रों से घूरे जा रही थी.


मैं मर्द हूं, तुम औरत



मैं मर्द हूं, तुम औरत, मैं भूखा हूं, तुम भोजन!! मैं भेड़िया, गीदड़, कुत्ता जो भी कह लो, हूं. मुझे
नोचना अच्छा लगता है. खसोटना अच्छा लगता है. मैं
कुत्ता हूं. तो क्या, अगर तुमने मुझे जनम दिया है.
तो क्या, अगर तुम मुझे हर साल राखी बांधती हो.
तो क्या, अगर तुम मेरी बेटी हो. तो क्या, अगर तुम
मेरी बीबी हो. तुम चाहे जो भी हो मुझे फ़र्क़ नहीं पड़ता.घोड़ा घास से दोस्ती करे, तो खायेगा क्या?
मुझे तुम पर कोई रहम नहीं आता. कोई तरस नहीं आता.
मैं भूखा हूं. या तो प्यार से लुट जाओ, या अपनी ताक़त से मैं लूट लूंगा. वैसे भी तुम्हारी इतनी हिम्मत
कहां कि मेरा प्रतिरोध कर सको. ना मेरे
जैसी चौड़ी छाती है ना ही मुझ सी भुजायें. नाखून हैं
तुम्हारे पास बड़े-बड़े, पर उससे तुम
मेरा मुक़ाबला क्या खाक करोगे. ताक़त तो दूर की बात
है, तुममें तो हिम्मत भी नहीं है. हम तो शेर हैं. पिछले साल तुम जैसी क़रीब बीस बाईस हज़ार
औरतॊं का ब्लाउज़ नोचा हम मर्दों नें. तुम जैसे बीस
बाईस हज़ार औरतों का अपहरण किया. अपहरण के बाद
मुझे तो नहीं लगता हम कुत्तों, शेरों या गीदड़ों ने तुम्हे
छोड़ा होगा. रिपोर्ट तक फ़ाईल करवाने में तुम्हारे मां-
बाप, भाई भी इज्ज़त की दुहाई देकर तुम्हे चुप करवाते हैं और कहते हैं सहो बेटी सहो. ,
“नारी की सहनशक्ति बहुत ज़्यादा होती है.”
तो फिर सहो. मैं मर्द हूं और हज़ारों सालों से देखता आ रहा हूं!!! तो क्या, अगर तुम्हारा ग्रंथ तुम्हारे
मासिक-धर्म का रोना रो तुम्हे अपवित्र बता देता है.
हम मर्द तुम्हें अक्सर ही रौंदते हैं. चाहे भगवान
हो या इंसान अगर हरेक साल तुम तीन-चार लाख
औरतों को हम तरह तरह से गाजर-मुली की तरह काटते रहते हैं. कभी बिस्तर पर, कभी सड़कों पर,
कभी खेतों में. तुम्हारी भीड़ सत्संग के लिये
ही जुटेगी पर हम मर्द के खिलाफ़ कभी नहीं जुट
सकती.
मैं भूखा हूं, तुम भोजन हो. तुम्हे खाकर पेट नहीं भरता,
प्यास और बढ़ जाती है!!(कुछ अच्छे अब बुरे ज्यादा)


ये पोस्ट उनलोगो समर्पित है जो ऐसे हयवानियत को अंजाम देते है

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पीतल का लोटा



पीतल का लोटा
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जिस घर में लड़की ने जन्म लिया हो, जिस घर में उसका बचपन गुजरा हो और जिस घर से उसकी हजारों खट्टी-मीठी यादें जुड़ी हो, शादी के बाद वही घर लड़की के लिए इतना अजनबी क्यों बन जाता है कि उसे अपने अधिकारों को भी भूलना पड़ता है। वन्दना ने हमेशा न्याय की बात कहना अपना धर्म समझा। यही कारण रहा कि वह सबकी प्रिय रही मगर शादी के बाद उसे अपने मायके में झिझक लगने लगी, इसका एक मूल कारण शायद उसकी मां का स्वर्गवास ही रहा।
उसके तीनों भाई-भाभियां एक घर में रहते हुए भी अलग-अलग रहते थे और पिताजी वैसे तो स्थायी तौर पर मां के जाने के बाद से बड़े भाई के साथ ही रहते थे लेकिन उनका थोड़ा बहुत सामान नीचे छोटे भाई के घर में भी एक छोटे संदूक में पड़ा रहता था। तीनों भाई नरम स्वभाव के थे मगर भाभियों के बीच अक्सर खटपट हुआ करती थी। वन्दना जब भी दो-चार दिनों के लिए मायके आती तो भाभियों के बीच होने वाले झगड़ों की वजह से उसका दिमाग तनाव में रहता था। झगड़ों की वजह कोई बहुत बड़ी नहीं थी बल्कि पिताजी के उस संदूक का सामान था, जिसका उन्होंने बंटवारा नहीं किया था। अब वन्दना करीब एक महीने के लिये मायके आई थी क्योंकि उसका स्वास्थ्य थोड़ा ज्यादा खराब था।
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वन्दना को मायके आये अभी चार दिन ही हुये थे। वह ऊपर छत पर धूप में बैठकर बाल सुखा रही थी कि नीचे से तेजी की आवाजें आई, वन्दना नीचे उतरकर आई तो उसने देखा छोटी भाभी पिताजी को खूब खरी -खोटी सुना रही थी और पिताजी अपने आंसू पोंछ रहे थे। पूछने पर पिताजी ने बताया कि वह नीचे रखे अपने संदूक से अपना कोट निकाल रहे थे मगर छोटी बहू समझी कि वह कुछ और ही चीज निकालकर ऊपर बड़ी को चुपचाप देने जा रहे हैं। इतनी बात पिताजी के मूंह से सुनकर बड़ी और मंझली बहू भी निकल आई। बड़ी बहू कहने लगी।
‘‘तुझे शर्म नहीं आती ऐसा करते हुए, आखिर कौन-सी चीज उठा लाये पिताजी ऊपर-?
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छोटी बहू भन्ना कर बोली? ‘‘क्यों ले नहीं जाते क्या-पिताजी तो मेरे साथ हमेशा ही पक्षपात करते हैं बड़े बेटे पैसे वाले हैं तो उनके ही घुसते हैं।’’
‘‘तो तेरे यहां आकर क्या करें? तू तो उन्हें पीने तक को पानी नहीं देती- ’’ बड़ी बहू ने कहा तो मंझली ने उसका समर्थन किया।
‘‘तुम तो ऐसा कहोगी ही। यदि तुम पिताजी को खिला-पिला रही हो तो यह तुम्हारा फर्ज है तुम बड़े हो और फिर पिताजी चुपके -चुपके संदूक में से ले जाकर सामान नहीं पकड़ाते रहते क्या तुम्हें ऊपर।’’
छोटी बहू की ऐसी बातों से दुखी होकर पिताजी अपना सिर पकड़ कर बैठ गए। वन्दना से अपने बूढ़े पिता ही दयनीय दशा देखी नहीं गई।
क्रोधित स्वर में वह अपने पिता से बोली, ‘‘यह सब आपकी गलती के ही कारण हो रहा है पिताजी। जब सब कुछ आपने बांटकर दे दिया अपने बेटों को तो आपने अपना संदूक क्यों नीचे रख छोड़ा है। जब आप ऊपर रहते हैं, ऊपर ही खाते -पीते हैं तो आपको संदूक भी ऊपर रखना चाहिए था ना। आप अपनी जरूरतों की चीजें लेने ना बार-बार नीचे जाकर संदूक खोलेंगे और ना छोटी भाभी के मन में यह संदेह पैदा हो...।’’
हालांकि वन्दना ने न्याय संगत बात ही कही थी और अपने पिता से ही कही थी मगर छोटी बहू तिलमिलाकर वन्दना पर ही बरस पड़ी, ‘‘दीदी -तुम इस घर की बेटो हो, बेटी ही रहो। तुम घर के मामले में बोलने का कोई हक नहीं है, तुम क्या यहां फूट डालोगी?’’ वन्दना को छोटी भाभी से ऐसे व्यवहार की उम्मीद नहीं थी उसको बहुत ठेस लगी। वह आंसुओं से भीगे स्वर में बोली, ‘‘इसमें मैंने गलत क्या कहा भाभी-? मैंने आपसे तो कुछ नहीं कहा? क्या मुझे अपने पापा से भी कुछ कहने का अधिकार नहीं है-?’’
‘‘नहीं है, तुम्हें क्या मतलब, तुम्हारी शादी हो चुकी है तुम बहन बेटी हो वही बनकर रहो-’’ छोटी बहू बोली।
‘‘लानत है ऐसी बहन-बेटी पर जो इंसाफ की बात नहीं कह सके- ’’ वंदना भी गुस्से से बोली।
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‘‘आने दो शाम को तुम्हारे भैया को, देखना तुम्हारी क्या हालत करवाती हूं’’ छोटी बहू वन्दना से धमकी भरे स्वर में बोली।
वन्दना के दिल को छोटी बहू की इस भाषा से बहुत आघात लगा। सिर्फ वन्दना ही नहीं, पिताजी भी से बहुत आहत हुए और अपना क्रोध काबू में ना रख सके। वह क्रोध में अपने हाेंठ दबाते हुए नीचे गये और अपना संदूक निकालकर उसका सारा सामान बीच आंगन में निकालकर पटकते गये फिर आहत स्वर में बोले, ‘‘यही है ना क्लेश की जड़ बहू जिसके लिए आज तुमने मेरी बेटी को पराया बना दिया, देखो इस संदूक में क्या है-?’’
तीनाें बहुएं बड़े गौर से संदूक में से निकले सामान को देखने लगीं। उस सामान में एक गर्म शाल, कुछ वन्दना की मां की तस्वीरें, कुछ किताबें और एक पीतल का छोटा लोटा था। पिताजी भर्राए स्वर में बोले, ‘‘ये किताबें मेरी जीवन साथी रही है इन्हें ही मैं जब कभी पढ़ने के लिए निकालकर ले जाता रहा हूं। आज इनका भी बंटवारा कर लेना, मगर भगवान के लिए ऐसे नीच वचन मत बोलो-’’ पिताजी हाफंने लगे थे, शायद उनके अंदर शारीरिक पीड़ा की भी कोई लहर उठी थी।
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वन्दना पिताजी को संभालने के लिए बढ़ती इससे पहले ही पिताजी ने पीतल का लोटा उठाया और वन्दना से बोले, ‘‘बेटी-अपने पिता को क्षमा कर देना। आज मेरे कारण तुम्हारा इतना अपमान हुआ है और हां बहुओं, यह लोटा तो एक ही है इसके तीन हिस्से करना संभव नहीं है इसलिए ऐसा करना जब मैं मरूं तो इस लोटे में ही मेरे लिए घी भेज देना क्योंकि ऐसे ही एक लोटे में तुम्हारी सास के लिए भी घी गया था।’’
इतना कहकर पिताजी लोटा आंगन में पटक घर से बाहर की ओर चले गये। तीनों बहुएं भी अपने काम में लग गई और वन्दना, वह आंगन मे बिखरी किताबों पर सिर रखकर सिसकने लगी।
पिताजी धीरे-धीरे कछुआ चाल की तरह श्रीराम मंदिर की ओर बढ़े जा रहे थे।
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अभी उन्होंने मंदिर की दो-तीन सीढ़िया ही चढ़ी थी कि अचानक सीना थामे वही बैठ गये और उनका सिर एक ओर लुढ़क गया। एक व्यक्ति जिसका नाम कृपाराम था वह यह सब देखते ही मंदिर के सामने बनी अपनी दुकान से नीचे उतरा और दौड़कर वहां आया उसने सीढ़ियों पर निगाह डालते ही कहा,
‘‘अरे, यह तो ईश्वर प्रसाद हैं। हे भगवान, इन्हें क्या हुआ?’’ फिर उसने उनकी नब्ज देखी और उदास मन से उनके घर की ओर चल दिया।
वन्दना को आंगन में बैठे-बैठे काफी देर हो गई थी, बड़ी बहू नीचे आई और वन्दना से बोली, ‘‘वन्दना, चलो उपर चलो तुम्हारी तबियत ठीक नहीं।’’
‘‘अभी आ जाएंगे, तुम चलकर खाना खालो...।’’
बड़ी बहू ने इतना कहकर आंगन में बिखरी किताबें एक ओर उठाकर रखी। छोटी बहू अपने कमरे में से सब कुछ देख रही थी जैसे ही बड़ी ने एक तरफ लुढ़का पीतल का लोटा उठाया, छोटी बहू ने आंगन में आकर उससे लोटा छीनकर कहा, ‘‘तुम इसे नहीं ले जा सकतीं, इसे मैं लूंगी...।’’
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बड़ी बहू सिर हिलाकर बोली, ‘‘तूने वाकई गजब कर दिया है मैं उठकर किताबों के पास रख रही थी ना कि ले जा रही थी।’’
मंझली ऊपर के आंगन से ही झांककर बोली, ‘‘और फिर इसे लेने का अधिकार तुझे ही कैसे मिल गया। पिताजी की हर चीज पर तीनों का हक बराबर है...।’’
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वन्दना की कनपटी सुर्ख हो उठी उसने अपने हाथों में लोटा लिया और कुछ कहती इससे पहले ही बाहर से आवाज आई, ‘‘बेटी वन्दना--।’’
वन्दना ने बाहर आकर देखा। कृपाराम को वह एक दृष्टि में ही पहचान गई और बोली, ‘‘ चाची जी आप कहिए कैसे आना हुआ?
‘‘ गजब हो गया बेटी अपने भाइयों को दफ्तर से बुलवा लो। तुम्हारे पिताजी का मंदिर की सीढ़ियों पर हृदय की गति रुकने से देहांत हो गया।’’
‘‘नहीं...पिताजी..’’ वन्दना का दिल दहल उठा। जैसे ही उसे अपने हाथ में पीतल का लौटा होने का अहसास हुआ वह बिलखकर रो पड़ी।



Tuesday 5 June 2018

उम्र काटी थी कभी जिसने मेरे पहलू में,

उम्र काटी थी कभी जिसने मेरे पहलू में, वो ही अहसास मेरा तेरी ज़ूबानी निकला. टूट के जुड़ने का फिर जुड़ के टूटने का सफ़र, मेरे दिल का ना कोई दुनिया में सानी निकला. जिसकी हर एक ख़ुशी मुझसे रही बाबस्ता, मेरा हर ज़ख्म फ़क़त उसकी निशानी निकला.

मुद्दतों बाद मेरी सोच का मानी निकला, शख्स जो दिल में बसा था वो कहानी निकला. मुद्दतों बाद मेरे दर्द को छूआ उसने, मुद्दतों बाद मेरी आँख से पानी निकला. वक़्त ने रखके जिसे भूलना बेहतर समझा, प्यार ऐसी ही कोई चीज़ पुरानी निकला.

मिला है तुम्हें चार ही दिन का जीवन इसे यूँ ही बस तुम न बेकार करना वतन पर कभी आँच आए अगर तो क़लम की ज़रा तेज रफ्तार करना हमेशा ही हमने बाँटी हैं मुहब्बत उसे भी अगर हो सके प्यार करना






दग़ा दोस्ती में न तुम यार करना कभी पीठ पीछे न तुम वार करना करेंगे न हद पार हम दोस्ती की कि तुम भी कभी ये न हद पार करना अगर हम करें ज़िद कभी जीतने की तो हँस कर ही तुम हार स्वीकार करना कभी दूर से चल के आए कोई तो सदा हँस के ही उसका सत्कार करना


जिसने भी इस खबर को सुना सर पकड़ लिया कल इक दीए ने आंधी का कॉलर पकड़ लिया इक उम्र तक तो मुझको आरजू रही तेरी फिर ख़्वाशिओं ने मेरी बिस्तर पकड़ लिया



हर एक लफ़्ज़ में सीने का नूर ढाल के रख कभी कभार तो काग़ज़ पे दिल निकाल के रख ! जो दोस्तों की मोहब्बत से जी नहीं भरता, तो आस्तीन में दो-चार साँप पाल के रख ! तुझे तो कितनी बहारें सलाम भेजेंगी, अभी ये फूल सा चेहरा ज़रा सँभाल के रख



हर एक जानवर की रिहाई का फैसला हैरान हूँ मैं सुन के कसाई का फैसला आया है शह्र भर की भलाई का फैसला लेकिन वो असल में है कमाई का फैसला बेटी की खैर, एक दो माँगों के ही एवज टाला भी कैसे जाए जमाई का फैसला राखी करेगी माँग किसी दिन कलाई से थोपा न जाय बहनों पे भाई का फैसला



लोग जब ज़हर उगलने लगते हैं शहर के शहर जलने लगते हैं अपनी ताबीर तक पहुँचने को ख़्वाब आँखों में चलने लगते हैं तुमको पहलू में अपने पाते ही दर्द सारे पिघलने लगते हैं बाद दोपहर के कई साये अपनी जगहें बदलने लगते हैं चाय का कप, ग़ज़ल, तेरी बातें कैसे अरमान पलने लगते हैं





सब में तो बस सब दिखता है लेकिन तुझ में रब दिखता है तुमसे मिल कर मेरा चेहरा देखो यार गजब दिखता है तुझ को छोड़ के दुनिया देखूँ मुझ को इतना कब दिखता है


सुब्ह मिला करती हैं किरचें ख़्वाब कोई हर शब दिखता है कितने पत्थर दिल हो, तुमको इश्क़ में भी मज़हब दिखता है





तुम्हारे दिल को भा जाये न कोई और ही जानां ये डर मुझको सुनो अंदर ही अंदर मार डालेगा चले जिसके भरोसे पर सफर की मन्ज़िले पाने ख़बर क्या थी वही इक रोज़ रहबर मार डालेगा। अंधेरा लाख कोशिश कर ले बचने की मगर °सीमा° इसे कुछ देर में सूरज निकलकर मार डालेगा।


कहूँ गर झूठ तो ईमान अंदर मार डालेगा बनूँ आईने की सूरत तो पत्थर मार डालेगा करेगा खाक शेरो शायरी गायेगा क्या नगमे मुहब्बत का अगर एहसास शायर मार डालेगा तुम्हारे दिल को भा जाये न कोई और ही जानां ये डर मुझको सुनो अंदर ही अंदर मार डालेगा



गुल-गुंचे-शजर बिक गए तितलियों के पर बिक गए आ गया कैसा ज़मां ये मुफलिसों के घर बिक गए मंजिलों कैसे मिलें अब - सारे रहगुज़र बिक गए अस्मतें बिकती सड़क पर गालों के भंवर बिक गए आदमी बे-सर हुए सब जो उठे वो सर बिक गए





दिन महीने साल से आगे नहीं गए हम कभी तेरे खयाल से आगे नहीं गए लोगों ने हर रोज खुदा से कुछ नया माँगा पर हम कभी तेरे सवाल से आगे नहीं गए मुमकिन है कोई पोंछ ही लेता मगर आंसूं भी कभी रुमाल से आगे नहीं गए बहुत हसीन चेहरे नजरों के आगे से गुजरे मगर हम थे कि तेरे जमाल से आगे नहीं गए







तुम बिल्कुल हम जैसे निकले अब तक कहां छुपे थे भाई? वह मूरखता, वह घामड़पन जिसमें हमने सदी गंवाई आखिर पहुंची द्वार तुम्हारे अरे बधाई, बहुत बधाई भूत धरम का नाच रहा है कायम हिन्दू राज करोगे? सारे उल्टे काज करोगे? अपना चमन नाराज करोगे?






चाहती तो है कि कोई हो तो तुझसे प्यार करे टूटकर पर डरती है आशिक की शक्ल मैं कौन निकल आए दलाल ए लड़की मुझसे पूछ के देख न कि क्या गुनाह है तेरा ऊपर वाले से क्यूँ पूछती हैं यह सवाल ए लड़की खड़े हो चार लोग कहीं तो डर जाती है यह सोचकर कि कहीं कोई तुझ पर तेज़ाब न दे डाल ए लड़की





कैंसा वक़्त है कि बाहर निकलना ही मुहाल है ए लड़की किसी की नजर मैं तू क्या मस्त चीज है तो किसी की नजर मैं तू क्या माल है ए लड़की जानता हूँ कि तू खुद इस बात से खूब वाकिफ है बिना रूह पर जख्म खाए तेरा घर लौट आना सचमुच कमाल है ए लड़की





कभी रिश्तों में अच्छी भी नहीं जज़्बात की ठंडक रगों में ख़ून सर्दी से उबलना छोड़ देते हैं जुदा होकर रहोगे चैन से, मेरी क़सम खाओ चलो अब रात भर करवट बदलना छोड़ देते हैं!






यक़ी अब हो चला है ,हम कभी अब मिल न पाएंगे तेरे मिलने की ख़्वाहिश पर मचलना छोड़ देते हैं तुम्हें भी काम है ,हम पर तक़ाज़े हैं ज़माने के वफ़ा के नाम पर अब दिल को छलना छोड़ देते हैं तुम्हें लगता है छोटा क़द मेरा है इस लिये जानाँ बुलंदी के लिये अब क्या उछलना , छोड़ देते हैं



तुम्हें देखे बिना न सुबह हो न रात ही गुज़रे चलो जज़्बात के टुकड़ों पे पलना छोड़ देते हैं मुख़ालिफ़ खुश तो होंगे हमको ज़िंदा लाश कह कह कर यही सोचा है अब घर से निकलना छोड़ देते हैं तेरी आँखों के मयख़ाने से अपना नाम वापस लें ये पीना, लड़खड़ाना और संभलना छोड़ देते हैं



वफ़ा की पुर ख़तर राहों पे चलना छोड़ देते हैं चलो हम लोग इक दूजे से मिलना छोड़ देते हैं करो कोशिश जिगर फौलाद का अपना बना लो तुम और हम भी मोम के जैसे पिघलना छोड़ देते हैं चलो इक दुसरे पर हक़ जताना भूल जाएँ हम किसी से भी मिलो तुम,हम भी जलना छोड़ देते हैं





जब भी तुम लाज़वाब होते हो, ख़ुशबू ले कर सवाल आते हैं. शाम ढलती है जब भी यादों की, हम तेरा घर संभाल आते हैं. यूँ मुसफ़िर हैं हम मगर तुमसे, मिलने को सालों-साल आते हैं. लोग यूँ बेवज़ह नहीं जलते , आप जुमले उछाल आते हैं.




फूल जब लाल लाल आते हैं, बस तुम्हारे ख़याल आते हैं. हमको कैसे मिला लिया ख़ुद से, तुमको कैसे कमाल आते हैं. दूर होते ही तुमसे मिलने का, कोई रस्ता निकाल आते हैं.




हनक सत्ता की सच सुनने की आदत बेच देती है हया को,शर्म को आख़िर सियासत बेच देती है निकम्मेपन की बेशर्मी अगर आँखों पे चढ़ जाए तो फिर औलाद, पुरखों की विरासत बेच देती है



ममैं दरिया नहीं हूँ जो वापस पलट के भी न आ सकूँ इक बार मुझ को तू अपने दिल से याद करके देख हमदर्दी, अपनापन, मुहब्बत, वफ़ा, दानिशमंदी खुद को अब बुजुर्गों की रवायत से आजाद कर के देख



तरीका जीने का नया ईजाद कर के देख दिल को किसी के गम से आबाद कर के देख यह इश्क है इसपर बादशाही हुक्म नहीं चलते इश्क चाहता है तो फ़क़ीर की तरह फ़रियाद कर देख



उसने लाख निशाने बदले लेकिन कब दीवाने बदले इक सचगोई की आदत ने रिश्ते कई पुराने बदले किसी ने बदले मंदिर-मस्जिद और हमने मयखाने बदले इक मेरा किरदार न बदला, कितने ही अफ़साने बदले हमने चौखट तक ना बदली, लोगों ने तहखाने बदले एक शाख़ पर उम्र काट ली, हमने कहाँ ठिकाने बदले



जिनके अपने घर होते हैं उनको कितने डर होते हैं पिंजरा भी आसमाँ लगता है कटे हुए जब पर होते हैं पूजा या पथरावों के हों पत्थर तो पत्थर होते हैं कट जाते हैं नए दौर में सजदे में जो सर होते हैं बातें तो होती रूहानी जिस्मानी मंजर होते हैं


इक न इक रोज तो रुखसत करता मुझसे कितनी ही मोहब्बत करता सब रुतें आके चली जाती हैं मौसम ए गम भी तो हिजरत करता मेरे लहजे में गुरुर आया था उसको हक था कि शिकायत करता और उससे न रही कोई तलब बस मेरे प्यार की इज़्ज़त करता


समझदारी अच्छी नहीं है ये फनकारी अच्छी नहीं है तुम्हे आंधी से लड़ना है चरागों ये तैयारी अच्छी नहीं है जरा सी बात ना इतनी बढ़ाओ ये चिंगारी अच्छी नहीं है ये दिल के छाले कहते हैं मुझसे वफादारी अच्छी नहीं है लगाओ यहां ना दिल किसी से ये बीमारी अच्छी नहीं है





नफरत का बीज हम इस कदर बोने लगे दरिंदगी अपनाकर इंसानियत खोने लगे कैसे जायेगे वो हिफाजत की दुआ करने अब तो मन्दिर में भी बलात्कार होने लगे



कभी नार से जले कभी फुहार से जले ये जब्त हमीं में था कि हम प्यार से जले फूलों के साथ रह के भी नाशाद रहे हम हम खार जैसे थे सो हम खार से जले आओ कि बातें कर लो अब दिन कहां बचे जलने दो हमारी जो गुफ़्तार से जले कौन उल्फत में भला रहता है बेदार हम खेल खेल में तिरे अनवार से जले




बोरे स्वदेशी चूहे कुतरते चले गए दाने अनाज के थे बिखरते चले गए कुछ अन्नदाता खेतों में मरते चले गए जो देश चर रहे थे वो चरते चले गए जिनसे थी बड़ी आस सिर का साया बनेंगे- वे आये सिर पे पैर ही धरते चले गए मैंने भरोसा आप के वादों पे किया था वादों से किन्तु आप मुकरते चले गए



आखर-आखर जब ढ़ाई हो जाएगा कटा - फटा दिल तुरपाई हो जाएगा उस पर कोई नजर पड़ेगी फिसलेगी- जब जब चेहरा चिकनाई हो जाएगा थाली के बैंगन का कुछ भी पता नहीं कब वो किसका अनुयायी हो जाएगा गिद्ध-दृष्टि गड़ गईं बैंकिंग सिस्टम पे रुपया - आना चौथाई हो जाएगा


आत्मा पर घाव लिए घर लौटने पर भी राहत नहीं जरा सी देरी पर वो बढ़े बूढ़ों की लानत में घिर जाती है तेजाब से झुलसे चेहरे सुनाते हैं दर्दभरी कहानी इकतरफ प्यार को नकारे तो अदावत में घिर जाती है घर वो या बाहर सब जगह एक से हालात हैं वो लड़की है ये पता चलते ही वो शामत में घिर जाती है








Sunday 3 June 2018

किसी को इतना मत चाहो क फिर भुला नासको


किसी को इतना मत चाहो क फिर भुला नासको





कुछ खूबसूरत पल याद आते हैं,
पलकों पर आँसु छोड जाते हैं,
कल कोई और मिले हमें न भुलना
क्योंकि कुछ रिश्ते जिन्दगी भर याद आते हैं
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सोचा था न करेगे किसी से दोस्ती
न करेगे किसी से वादा
पर क्या करे दोस्त मिला इतना प्यारा
की करना पडा दोस्ती का वादा


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मिटटी मेरे कब्र से चुरा रहा है कोई *?
मर के भी याद आ रहा हे कोई *?
पल की जिंदगी और दे दे खुदा *?
मायूस मेरी कब्र से जा रहा है कोई
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हमने हर कदम अपना तुम्हे पास लाने के लिए बढ़ाया,
और तुमने बढाया दूर करने के लिए
Insaan ager pyar me pade, to gam me pad hi jaata h,,,
Kyoki pyar Kisi ko kitna bi Kr loKam pad hi jaata Hai




Dukh Dete Ho Aur Khud Hi Sawal Karte Ho,
Tum Bhi O Sanam Kamaal Karte Ho,
Dekh Kar Puch Liya Hai HaaL Mera,
Chalo Shukr Hai Kuch To Khyaal Karte Ho




कुछ दोस्त दोस्त नहीं बल्कि
हमारी फमेली होते है



KUCH DOST DOST NAHI BAKLI
HAMARI FAMILY HOTE HAI



मुझे सपना देखना पसंद है क्यों की
सपने में तुम्सिर्फ़ मेरे होते हो





Toot kar chahne wale tujhe aj bhi tujhe chahty hain
Yeh aur bat hai tujhe ahsas na kal tha na aj hai
Ye aur bat hai ke izhar ho na saka humse
Nahi hai tumse muhabbat ye kaun kahta hai.


Ansoo aate hain rone se pehle
Khwab tutt jaate hain sone se pehle
Log kehte hain mohabbat gunah hain
Kash koi rok lete yeh gunah hone se pehle
Wallpaper Love Shayari



कहीं पर शाम ढलती है कहीं पर रात होती है,
अकेले गुमसुम रहते हैं न किसी से बात होती है,
तुमसे मिलने की आरज़ू दिल बहलने नहीं देती,
तन्हाई में आँखों से रुक-रुक के बरसात होती है
Hindi Shayari Wallpaper

दर्द ही सही मेरे इश्क का इनाम तो आया,
खाली ही सही हाथों में जाम तो आया,
मैं हूँ बेवफ़ा सबको बताया उसने,
यूँ ही सही, उसके लबों पे मेरा नाम तो आया



तू हमसफ़र तू हमडगर तू हमराज नजर आता है,
मेरी अधूरी सी जिंदगी का ख्वाब नजर आता है,
कैसी उदास है जिंदगी… बिन तेरे… हर लम्हा,
मेरे हर लम्हे में तेरी मौजूदगी का अहसास नजर आता है






MUJHE SAPNA DEKHNA PASAND HAI KYU KI
SAPNE MEIN TUM SIRF MERE HOTE HO

सुना है वो लोग पियार में जान भी दे देते है
जो मुझे वक़्त नहीं दे देते वो जान किया देंगे


दर्द से दोस्ती हो गई यारों,
जिंदगी बे दर्द हो गई यारों,
क्या हुआ जो जल गया आशियाना हमारा,
दूर तक रोशनी तो हो गई यारो।
Sad Images in Hindi

खामोश फ़िज़ा थी कोई साया न था,
इस शहर में मुझसा कोई आया न था,
किसी ज़ुल्म ने छीन ली हम से हमारी मोहब्बत,
हमने तो किसी का दिल दुखाया न था



Shayari Photo Top

Shayaro ki shayari se shayar ban gaye
Zindegi main kuch log the jo kabhi kayar ban gaye
Kabil toh har koi hota hain
Aap to kabiliyet se hamare dost ban gaye

Uttar ke dekh meri chahat ki gehrayi main
Sochna mere baare main raat ki tanhai main
Agar ho jaye meri chahat ka ehsaas tumhe
Toh milenga mera aksh, tumhe tumhari hi parchai main




इलाज-ए-दर्द-ए-दिल तुमसे मसीहा हो नहीं सकता
तुम अच्छा कर नहीं सकते, मैं अच्छा हो नहीं सकता
तुम्हें चाहूँ तुम्हारे चाहने वालों को भी चाहूँ
मेरा दिल फेर दो मुझसे ये झगड़ा हो नहीं सकता
अभी मरते है हम जीने का ताना फिर ना देना तुम
ये ताना उनको देना जिनसे ऐसा हो नहीं सकता


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SUNA HAI LOG PIYAAR MEIN JAAN BHI DE DETE HAI
JO MUJHE WAQT NAHI DETE WO JAAN KIYA DENGE
नफरत बता रही है
मोहब्बत गज़ब की थी


NAFRAT BATA RAHI HAI
MOHUBBAT GAZAB KI THI

खुद के लिए एक सजा चुनली मैंने
तेरी खुशियों की खातिर तुझसे दोयियाँ करली मैंने



KHUD KE LIYE EK SAJA CHUN LI MEINE
TERI KHUSIYON KE KHATIR TUJHSE DOYIYAN KARLI MEIN NE

बोहुत तकलीफ होती है जब दोनों तरफ से पियार हो
लेकिन किस्मत में मिलना नहीं



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BOHUT TAKLEEF HOTI HAI JAB DONO TARAF SE PIYAAR HO
LEKIN KISMAT MEIN MILNA NAHI

हमें तुम से पियार कितना ये हम नहीं जानते
मगर जी नहीं सकते तुम्हारे बिना

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HUMHE TUM SE PIYAAR KITNA YE HUM NAHI JAANTE
MAGAR JEE NAHI SAKTE TUMHARE BINA

किसी को इतना मत चाहो क फिर भुला नासको
यहाँ लोगों को बदलने में दिएर नहीं लगता

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KISI KO ITNA MAT CHAHO K PHIR BHULA NA SAKO
YAHAN LOGON KO BADALNE MEIN DAIR NAHI LAGTA

कल भी थे आज है उअर हमेशा रहेंगे
हम तेरे बिना अधूरे

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KAL BHI THE AAJ BHI HAI AUR HUMESHA RAHENGE
HUM TERE BINADHOORE


"सभी माँओं की झूठी बीमारी"* ----



"सभी माँओं की झूठी बीमारी"* -----
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*"नानी, मैं एक कुल्फी और ले लूं, प्लीज़.."*.....चीकू ने फ्रिज खोलते हुए पूछा.

*"चीकू, तुम खा चुके हो, गलत बात, वो कुल्फी नानी की है, हटो वहाँ से"* ...... मैंने अपने 6 साल के बेटे को आँखे तरेरी,, लेकिन तब तक चीकू की नानी कुल्फी उसके हवाले कर चुकी थी |


मैने थोडा नाराज होते हुये कहा..... *"क्या माँ आप भी ना,, मैं खास आपके लिए ये मलाई कुल्फी लाई थी| चीकू तो खा चुका था "*
माँ बोली...... *"अरे बेटा, जब से घुटनों में दर्द बढ़ा है ना, डॉक्टर ने कुछ भी ठंडा खाने को मना कर दिया है"*.....

मैंने सिर पकड़ लिया, माँ की वही *"पुरानी बीमारी झूठ बोलने की"* | बचपन में हमेशा यही होता था,, बस माँ जान जाएं कि हमें क्या अच्छा लगा और ये बीमारी उन्हें घेर लेती थी..... *"माँ!! मटर पनीर और है क्या, बहुत अच्छी बनी है"* .....
माँ एकदम बोल उठती..... *"हाँ, मेरी कटोरी से ले लो, मुझसे तो और खाई ही नहीं जा रही, मिर्च बहुत है इसमे"*.....

एक बार पापा बडे शौक से,, माँ के लिए गुलाबी लिपस्टिक लाए थे| बड़ी बुआ को लिपस्टिक भा गई और माँ की फिर वही बिमारी...... *"अरे,रख लो जीजी,, मुझे तो ये रंग बड़ा खराब रंग लगता है"*,....

इसके बाद दो दिनों तक मैंने माँ से बात नहीं की थी | पापा ने समझाया,.... *"बेटा, तुम्हारी माँ ने कभी अपने लिए कुछ नहीं चाहा,, ऐसी ही है वो"*....

चीकू की छुट्टियाँ खत्म होने वाली थी,, एक दो दिन में वापस जाना था | मैने अपने लिए कुछ साड़ियाँ ख़रीदीं,, जिनमें से *"हरी बंधेज साड़ी माँ को बहुत पसंद आई,, बार बार उलट पलट कर देखती रही"*...
मैने कहा..... *"माँ, ये आप रख लीजिए, मैं दूसरी ले लूंगी"*
माँ बोली..... *"अरे नहीं, ये हरा रंग,, ना बाबा ना,, बहुत चटक है| इतना चटक रंग मुझे अच्छा नही लगता"*...

सुबह मुझे निकलना था । सारी पैकिंग हो चुकी थी, मैं बहुत परेशान थी....
*"क्या हुआ बेटा, क्या ढूंढ रही हो तब से..?"*.....माँ ने पूछा

*"कुछ नहीं माँ, वो रसीद नहीं मिल रही और बिना रसीद साड़ी वापस होगी नहीं "*......मैंने अपना पर्स खंगालते हुए कहा |

माँ.... *"लेकिन साडी़ वापस क्यों करनी है ?? तुम तो सारी साड़ियाँ अपनी पसंद से लाई थी "*
*"हाँ माँ, लेकिन चीकू के पापा को हरी बँधेज वाली साडी़ बिल्कुल पसंद नहीं आई,, मैने फोटो भेजी थी | नाराज हो रहे थे, बोले... अच्छी नही,, तुरंत वापस करो "*..... लेकिन बिना रसीद कैसे करूँ ?? मैं रुआंसी थी |
माँ बोली..... *"वापस ही करनी है,, तो मैं रख लेती हूँ"*... और माँ साड़ी लेकर अंदर चली गईं |

तभी देखा,,, दरवाज़े पर पापा खड़े मुस्कुरा रहे थे, मेरी चोरी पकड़ी गई थी | वो बोले.....
*"लग गई माँ की बीमारी,, तुम्हें भी"*....

पापा ने सिर पर हाथ फेरा, *"सदा खुश रहो!"*


ऐसी होती हैं माँये

~ अच्छी सीख ~

~ अच्छी सीख ~
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पिता और पुत्र साथ-साथ टहलने निकले,वे दूर खेतों की तरफ निकल आये, तभी पुत्र ने देखा कि रास्ते में, पुराने हो चुके एक जोड़ी जूते उतरे पड़े हैं, जो ...संभवतः पास के खेत में काम कर रहे गरीब मजदूर के थे.

पुत्र को मजाक सूझा. उसने पिता से कहा ~ क्यों न आज की शाम को थोड़ी शरारत से यादगार बनायें,आखिर ... मस्ती ही तो आनन्द का सही स्रोत है. पिता ने असमंजस से बेटे की ओर देखा.

पुत्र बोला ~ हम ये जूते कहीं छुपा कर झाड़ियों के पीछे छुप जाएं.जब वो मजदूर इन्हें यहाँ नहीं पाकर घबराएगा तो बड़ा मजा आएगा.उसकी तलब देखने लायक होगी, और इसका आनन्द मैं जीवन भर याद रखूंगा.

पिता, पुत्र की बात को सुन गम्भीर हुये और बोले ~ बेटा ! किसी गरीब और कमजोर के साथ उसकी जरूरत की वस्तु के साथ इस तरह का भद्दा मजाक कभी न करना. जिन चीजों की तुम्हारी नजरों में कोई कीमत नहीं,
वो उस गरीब के लिये बेशकीमती हैं. तुम्हें ये शाम यादगार ही बनानी है, तो आओ .. आज हम इन जूतों में कुछ सिक्के डाल दें और छुप कर देखें कि ... इसका मजदूर पर क्या प्रभाव पड़ता है.पिता ने ऐसा ही किया और दोनों 
पास की ऊँची झाड़ियों में छुप गए.

मजदूर जल्द ही अपना काम ख़त्म कर जूतों की जगह पर आ गया. उसने जैसे ही एक पैर जूते में डाले उसे किसी कठोर चीज का आभास हुआ, उसने जल्दी से 
जूते हाथ में लिए और देखा कि ...अन्दर कुछ सिक्के पड़े थे.

उसे बड़ा आश्चर्य हुआ और वो सिक्के हाथ में लेकर बड़े गौर से उन्हें देखने लगा.फिर वह इधर-उधर देखने लगा कि उसका मददगार शख्स कौन है ? दूर-दूर तक कोई नज़र नहीं आया, तो उसने सिक्के अपनी जेब में डाल लिए. अब उसने दूसरा जूता उठाया, उसमें भी सिक्के पड़े थे. 

मजदूर भाव विभोर हो गया.

वो घुटनो के बल जमीन पर बैठ ...आसमान की तरफ देख फूट-फूट कर रोने लगा. वह हाथ जोड़ बोला ~
हे भगवान् ! आज आप ही किसी रूप में यहाँ आये थे, समय पर प्राप्त इस सहायता के लिए आपका और आपके माध्यम से जिसने भी ये मदद दी,उसका लाख-लाख धन्यवाद.
आपकी सहायता और दयालुता के कारण आज मेरी बीमार पत्नी को दवा और भूखे बच्चों को रोटी मिल सकेगी.तुम बहुत दयालु हो प्रभु ! आपका कोटि-कोटि धन्यवाद.

मजदूर की बातें सुन ... बेटे की आँखें भर आयीं. 
पिता ने पुत्र को सीने से लगाते हुयेे कहा ~क्या तुम्हारी मजाक मजे वाली बात से जो आनन्द तुम्हें जीवन भर याद रहता उसकी तुलना में इस गरीब के आँसू और 
दिए हुये आशीर्वाद तुम्हें जीवन पर्यंत जो आनन्द देंगे वो उससे कम है, क्या ?

पिताजी .. आज आपसे मुझे जो सीखने को मिला है, उसके आनंद को मैं अपने अंदर तक अनुभव कर रहा हूँ.
अंदर में एक अजीब सा सुकून है.
आज के प्राप्त सुख और आनन्द को मैं जीवन भर नहीं भूलूँगा. आज मैं उन शब्दों का मतलब समझ गया
जिन्हें मैं पहले कभी नहीं समझ पाया था.आज तक मैं मजा और मस्ती-मजाक को ही वास्तविक आनन्द समझता था, पर आज मैं समझ गया हूँ कि ~
~ लेने की अपेक्षा देना ~
कहीं अधिक आनंददायी है.

आप भगवान हो " ये शब्द अगर आपके लिए कोई कहे तो आपको कैसा लगेगा?

आप भगवान हो " ये शब्द अगर आपके लिए कोई कहे तो आपको कैसा लगेगा?
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दोपहर लगभग 12 बजे कडकती धूप तकरीबन 45 डिग्री के आसपास ऑफिस से बाहर काम के लिए जा रहा था गला सूख रहा था सोचा कुछ ठंडा पीया जाए तभी एक गन्ने के रस की दुकान पर नजर गई मैंने बडा गिलास आर्डर किया ,जूस वाला ताजा जूस निकाल रहा था की अचानक मेरी नजर एक बच्ची पर गई जो लगभग5या 6साल की होगी जो कुछ सिक्के गिन रही थी ओर जूस वाले से बोली-भैया5रूपए का जूस दे दो पहले तो जूस वाले ने मना किया जब वो लडकी वहाँ से नही हटी तो उसे कुछ डांटकर अपशब्द कहने लगा,मुझे कुछ बुरा लगा मैंने गन्ना जूस दुकान वाले को डांटा फिर उस लडकी से पूछा-क्या बात हे वो बोली-दादा (लड़की बंगाली थी भाई को दादा कहते हैं बंगाली में) भैया 10 ,20,30 ,रूपए मे जूस बेचते हे बहुत दिनो से जूस पीना चाहती हूँ मे बस भैया को बोल रही थी 5 रूपए का जूस दे दो ओर कहकर रोने लगी ,मैंने उस दुकान वाले को देखा ओर अपना जूस उस लडकी को देने को कहा, ओर अपने लिए एक ओर गिलास का आर्डर दे दिया,दोस्तों उस लडकी ने ऐसे जूस पीया जैसे कई सालो से उसे प्यास लगी हो मैंने भी जूस पीना शुरू किया था तभी उस लडकी की मां आ गई ओर लगी उसे डांटने ,जब लडकी ने मेरी तरफ इशारा करके कहा बाबूजी ने दिलवाया है तब वो मानी वरना वो लडकी को डांटे जा रही थी ,जूस पीकर वो लडकी बोली-दादा आपको जरूर भगवान ने भेजा हे ना या आप खुद भगवान हो मे ये सुनकर हैरान था जब मैंने उससे पूछा तो वो बोली-मां कहती है जब कोई भूखा हो प्यासा हो तो भगवान उसके लिए कैसे ना कैसे आकर मदद करते हे या अपने किसी व्यक्ति को भेजते है ,मे ये शब्द सुनकर जबतक संभलता वो अपनी मां संग जा चुकी थी उस एक पल मे एहसास हुआ हम मंदिरों मे चढावे मे कितने पैसे चढाते हे अगर वही उनमें से कुछ पैसों से ऐसे किसी गरीब को कुछ खाने पीने का समान बांटे तो कैसा रहे,हमारे घरों मे कुछ कपडे जोकि हम नही पहनते या हमारे बच्चे उनको नही पहनते(शायद छोटे होने पर,रंग पसंद ना होने पर )ऐसे कपडे कयो ना हम उन गरीब बच्चो मे बांट दे ,दोस्तों कहते हे किसी गरीब की दुआ खाली नही जाती ओर सच पूछिए तो मन को एक अजीब सा सुकून मिलता हे इस घटना के बाद से मे कुछ ऐसा करने की कोशिश करता रहता हूँ आप भी करके देखिए यकीन मानिए अच्छा लगेगा।

Indian Beautiful

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