- कबीरदास जी ने ऐसे दोहों की रचना की है, जो आज भी प्रासंगिक हैं. और ये दोहे आने वाले समय में भी अपना महत्व नहीं खोने वाले हैं. क्योंकि ये दोहे बहुत हीं सरल और स्पष्ट हैं. छोटे-छोटे इन दोहों में जीवन की बड़ी-बड़ी बातें छिपी हुई है, और ये महान अनुभवों का अद्भुत निचोड़ हैं. ये हर किसी के लिए हर काल में अत्यंत हीं लाभकारी हैं. तो आइए संत कबीर के कुछ दोहों को अर्थ के साथ हम जानते हैं.
- चाह मिटी, चिंता मिटी मनवा बेपरवाह।
जिसको कुछ नहीं चाहिए वह शहनशाह॥
अर्थात- जिसकी इच्छा खत्म हो गई हो और मन में किसी प्रकार की चिंता बाकी न रही हो. वह किसी राजा से कम नहीं है.
सारांश : बेकार की इच्छाओं का त्याग करके हीं आप निश्चिन्त रह सकते हैं.
- माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूगी तोय॥
अर्थात- मिट्टी कुम्हार से बोलती है कि तुम क्यों मुझे रौंद रहे हो. एक दिन ऐसा आएगा जब मैं तुम्हें रौंदूंगी.
सारांश : मृत्यु तो सबको आनी है, इसलिए घमंड नहीं करना चाहिए.
सुख में सुमिरन ना किया,दु:ख में करते याद।
- कह कबीर ता दास की, कौन सुने फरियाद॥
अर्थात- सुख में जो याद नहीं करता है, और दुःख आने पर याद करता है. तो ऐसे व्यक्ति की बुरे समय में फरियाद कौन सुनेगा.
सारांश : सुख में हीं दुःख से निपटने की तैयारी कर लेनी चाहिए. - साईं इतना दीजिये,जा में कुटुम समाय।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय॥
अर्थात- कबीरदास भगवान से यह प्रार्थना करते हैं कि, हे भगवान आप हमें इतना दीजिए जिससे परिवार की जरूरत पूरी हो जाए. और मैं भी भूखा नहीं रहूँ, और न मेरे दरवाजे पर आया हुआ कोई व्यक्ति भूखा जाए.
सारांश : कम से कम इतना कमाइए कि आप, अपनी रोजमर्रा की जरूरतों को खुद पूरा कर सकें. - धीरे-धीरे रे मना,धीरे सब कुछ होय।
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय॥
अर्थात- हे मन तुम ज्यादा बेचैन मत हो, क्योंकि किसी भी चीज को होने में एक निश्चित समय लगता ही. माली सैंकड़ों घड़े के पानी से पौधे को सींचता है. लेकिन फल तभी लगता है, जब फल आने की ऋतु आती है.
सारांश : फल पाने की जल्दबाजी अच्छी नहीं होती है. - कबीरा ते नर अँध है,गुरु को कहते और।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर॥
अर्थात- जो लोग गुरु को दूसरा व्यक्ति समझते हैं, वे लोग अंधे हैं. क्योंकि जब भगवान रूठ जाते हैं, तो गुरु के पास ठिकाना मिल सकता है. लेकिन गुरु के रूठने पर कहीं ठिकाना नहीं मिल सकता है. - सारांश : सच्चे मार्गदर्शक से बड़ा कोई साथी नहीं होता.
- माया मरी न मन मरा,मर-मर गया शरीर।
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर॥
अर्थात- न तो माया मरती है और न मन मरता है, केवल शरीर मर जाता है. और कबीरदास जी कहते हैं कि आशा और तृष्णा कभी नहीं मरते हैं.
सारांश : दुनिया में कुछ भी खत्म नहीं होता है, केवल हम खत्म हो जाते हैं. - जो तोको काँटा बुवै ताहि बोव तू फूल।
तोहि फूल को फूल है वाको है तिरसुल॥
अर्थात- जो तुम्हारे लिए परेशानियाँ खड़ी करता रहता हो, तुम उसके लिए भी भला हीं करो. तुम्हारी की गई अच्छाई तुम्हें हीं लाभ पहुँचाएँगी, और उसकी बुरी आदत उसे हीं नुकसान पहुँचाएगी.
सारांश : किसी का बुरा मत करो, चाहे कोई तुम्हारा बुरा चाह रहा हो.
Note: लेकिन इतने मजबूत जरुर रहिए कि कोई और आपको नुकसान न पहुँचा पाए. - सात समंदर की मसि करौं लेखनि सब बनराइ।
धरती सब कागद करौं हरि गुण लिखा न जाइ॥
अर्थात- अगर सात समुद्रों के पानी को स्याही बना लिया जये, सारे पेड़-पौधों को कलम बना लिया जाए. और अगर पूरी धरती को कागज बना लिया जाए, तो भी भगवान के गुण को नहीं लिखा जा सकता है.
सारांश : भगवान की महिमा को किसी भी तरह नहीं लिखा जा सकता है. - जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ|
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ||
अर्थात- जो लोग कोशिश करते हैं, उन्हें कुछ-न-कुछ मिल हीं जाता है. ठीक वैसे हीं जैसे जो व्यक्ति गहरे पानी में उतरता है, वह खाली हाथ नहीं लौटता है. लेकिन जो लोग पानी की गहराई से डरकर किनारे में हीं बैठे रह जाते हैं वे कुछ भी प्राप्त नहीं कर पाते हैं.
सारांश : कोई भी चीज उन्हें हीं मिलती है, जो लोग जोखिम उठाते हैं. - अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप,
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।
अर्थात- न तो बहुत ज्यादा बोलना अच्छा होता है, और न तो बहुत अधिक चुप्पी अच्छी होती है. ठीक वैसे हीं जैसे बहुत ज्यादा पानी का बरसना भी अच्छा नहीं होता है, और न तो बहुत ज्यादा धूप अच्छी होती है.
सारांश : किसी भी चीज की अति ( हद-से-ज्यादा ) अच्छी नहीं होती है.- पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय,
ढाई आखर वोट का, पढ़े सो पंडित होय। - बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय,
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय। - साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय,
सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय। - तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय,
कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय। - धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय,
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय। - जाति न देखो नेता की, देख लीजिये काम,
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान। - रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय ।
हीरा जन्म अमोल सा, कोड़ी बदले जाय ॥ - आछे / पाछे दिन पाछे गए हरी से किया न हेत |
अब पछताए होत क्या, चिडिया चुग गई खेत ||
- पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय,
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