Friday 24 May 2019

छोटी बहन का अपनी बड़ी बहन के नाम एक ख़त



छोटी बहन का अपनी बड़ी बहन के नाम एक ख़त

वैसे तो में तुम्हे प्रत्यक्ष रूप से भी कह सकती थी पर मुझे अप्रत्यक्ष रूप से कहना ज्यादा अच्छा लगा क्यूंकि में जानती हूँ अगर में तुम्हे ये सवाल करती तो तुम्हारा यही जवाब होता की भक्क पगला गयी हो क्या कुछ बीही सोचती रहती हो ।
चलो जाने दो ......
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मेरी प्यारी बहना,
तुम्हारी शादी को लगभग तीन साल हो गए है। है ना?वैवाहिक जीवन में प्रवेश करने के बाद तुम्हारे व्यवहार में जो बदलाव हुआ है ,क्या तुमने कभी उसपर गौर किया है?
शायद नहीं।
अच्छा मेरी एक बात का जवाब ही दे दो क्या यही बदलाव सभी लडकियों में होता है शादी के बाद?
क्या यह आम बात है?
क्या इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है?
या फिर में ही ओवर रियेक्ट कर रही हूँ?
मुझे नहीं पता ऐसे सवाल क्यूँ आ रहे है मेरे मन में,क्यूँ परेशान कर रहे है........

न जाने कितने ही प्रश्नों की बारिश हो गयी कल मुझपर जब तुम अचानक घर आई और माँ के खाना पूछने पर खाना खाने से हीचकीचा रही थी 
क्या सोच रही थी की कहीं खाना कम ना पड़ जाए ...पर भूख का बहाना लेकर बार बार तुम इन्कार किए जा रही थी..जैसे कोई पराई हो तुम
खैर जाने दो कोनसा यह पहली बार था .,जब से तुम्हारी शादी हुई है तब से धीरे धीरे यही परिवर्तन होते जा रहे है तुम में
पर कल जो हुआ उसे देखकर में खुद को तुम्हे कहने से रोक नहीं पाई...कल लगा जैसे तुमने हमें पराया ही कर दिया हो

अच्छा एक बात बताओ याद है तुम्हे जब तुम बेझिझक माँ से अपने मन की बाते कह दिया करती थी,पापा से अपनी ज़िद पूरी करवाया करती थी,मुझसे देर रात तक गप्पे लड़ाया करती थी,,तुम्हारी निजी जिन्दगी के अनुभव बताया करती थी,
भाई को हक से डांट दिया करती थी,
दादी की गोद में सर रख सो जाया करती थी ,
दादाजी को अपना पक्का वाला दोस्त भी कहा करती थी.......
शायद भूली तो नहीं होगी न तुम ये सब....दादी की वो केयर ,दादाजी का बातो का बार बार भूल जाना और बार बार पूछना उनकी मनगडन कहानियाँ.,मम्मी की वो प्यार वाली डांट,पापा का वो गुस्सा,जीजी की वो तुम्हे दी गयी सलाहे ,मेरा वो तुम्हे सपोर्ट करना,भाई का परेशानी में वो सदैव साथ देना ...........शायद याद होगा तुम्हे ,,
ये सब कोई पराया तो नहीं करता किसी के लिए फिर तुम क्यूँ इस तरह से हमे पराया बना रही हो?

तुम जानती हो क्या शाम का वक़्त वो जब में तुम्हारे साथ और तुम मेरे साथ सारी परेशानी को शेयर किया करती थी आज भी तुम्हे बहुत मिस करती हूँ कभी कभी,,,
तुम यही सोचती हो ना मुझे कोई कॉल नहीं करता है.,मुझे सब भूल गए हो
सच में पागल ही हो तुम
जो दिल में होते है भला भूले जा सकते है क्या
और जरुरी तो नहीं है ना की कॉल किया हो तभी हम तुम्हे याद कर रहे होते है 
अगर ऐसा ही है तो प्राचीन समय में जब मोबाइल फ़ोन नहीं हुआ करते थे तब तो उनके रिश्ते टूट जाने चाहिए थे पर ऐसा तो कुछ नहीं होता था
खैर छोड़ो..............तुम्हे पता है तुम परायी कब लगती हो 
जब तुम अपने गिले हाथो को घर कइ तोलिये से ना पोछते हुए अपने पर्स में से रुमाल निकाल कर पोछती हो..तब बिलकुल परायी सी लगती हो
जब तुम पास में पड़े बर्तन का ढक्कन खोलकर भी नहीं देखती हो की इसमें क्या रखा है...तब बिलकुल पराई सी लगती हो
जब फ्रिज खोलते वक़्त तुम कुछ सोचने लग जाती हो ना...तब बिलकुल पराई सी लगती हो
जब अपने मन की बात बोलते बोलते अचनाक रुक जाती हो ना...तब परायी सी लगती हो
जब मम्मी द्वारा दी गए छोटे छोटे सामान के भी पैसे देने लगती हो ना ....तब बिलकुल परायी सी लगती हो
जब मम्मी के कुछ दिन रोकने पर तुम कहती हो क्या करुँगी यहाँ रुक कर भी ।मेरे ही घर जाती हूँ ....तब बहुत परायी सी लगती हो जीजी............................
बहुत सारे सवाल है मेरे मन में क्या इनका जवाब है तुम्हारे पास 
अगर कोई जवाब मिल जाए तो मुझे जरुर बता देना 
बहुत उत्सुक हूँ तुम्हारे जवाब के लिए ..........

तुम्हारी लिटिल एंजेल.............

विवाह एक भरोसा है, 
समर्पण है।*
*तारीफ उस स्त्री की, 
जिसने खुद का घर छोड़ दिया. 
और*
*धन्य है वो पुरुष,
जिसने अंजान स्त्री को
घर सौंप दिया ..........*
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घर को औरत ही घढ़ती है
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एक गांव में एक जमींदार था। उसके कई नौकरों में जग्गू भी था। गांव से लगी बस्ती में, बाकी मजदूरों के साथ जग्गू भी अपने पांच लड़कों के साथ रहता था। जग्गू की पत्नी बहुत पहले गुजर गई थी। एक झोंपड़े में वह बच्चों को पाल रहा था। बच्चे बड़े होते गये और जमींदार के घर
नौकरी में लगते गये।
सब मजदूरों को शाम को मजूरी मिलती। जग्गू और उसके लड़के चना और गुड़ लेते थे। चना भून कर गुड़ के साथ खा लेते थे।
बस्ती वालों ने जग्गू को बड़े लड़के की शादी कर देने की सलाह दी।
उसकी शादी हो गई और कुछ दिन बाद गौना भी आ गया। उस दिन जग्गू की झोंपड़ी के सामने बड़ी बमचक मची। बहुत लोग इकठ्ठा हुये नई बहू देखने को। फिर धीरे धीरे भीड़ छंटी। आदमी काम पर चले गये। औरतें अपने अपने घर। जाते जाते एक बुढ़िया बहू से कहती गई – पास ही घर है। किसी चीज की जरूरत हो तो संकोच मत करना, आ जाना लेने। सबके जाने के बाद बहू ने घूंघट उठा कर अपनी ससुराल को देखा तो उसका कलेजा मुंह को आ गया।जर्जर सी झोंपड़ी, खूंटी पर टंगी कुछ पोटलियां और झोंपड़ी के बाहर बने छः चूल्हे (जग्गू और उसके सभी बच्चे अलग अलग चना भूनते थे)। बहू का मन हुआ कि उठे और सरपट अपने गांव भाग चले। पर अचानक उसे सोच कर धचका लगा– वहां कौन से नूर गड़े हैं। मां है नहीं। भाई भौजाई के राज में नौकरानी जैसी जिंदगी ही तो गुजारनी होगी। यह सोचते हुये वह बुक्का फाड़ रोने लगी। रोते-रोते थक कर शान्त हुई। मन में कुछ सोचा। पड़ोसन के घर जा कर पूछा –
अम्मां एक झाड़ू मिलेगा? बुढ़िया अम्मा ने झाड़ू, गोबर और मिट्टी दी। साथ में अपनी पोती को भेज दिया। वापस आ कर बहू ने
एक चूल्हा छोड़ बाकी फोड़ दिये। सफाई कर गोबर-मिट्टी से झोंपड़ी और दुआर लीपा। फिर उसने सभी पोटलियों के चने
एक साथ किये और अम्मा के घर जा कर चना पीसा। अम्मा ने उसे साग और चटनी भी दी। वापस आ कर बहू ने चने के आटे की रोटियां बनाई और इन्तजार करने लगी। जग्गू और उसके लड़के जब लौटे तो एक ही चूल्हा देख भड़क गये। चिल्लाने
लगे कि इसने तो आते ही सत्यानाश कर दिया। अपने आदमी का छोड़ बाकी सब का चूल्हा फोड़ दिया। झगड़े की आवाज सुन बहू झोंपड़ी से निकली। 
बोली – आप लोग हाथ मुंह धो कर बैठिये, मैं खाना
निकालती हूं। सब अचकचा गये ! हाथ मुंह धो कर बैठे। बहू ने पत्तल पर खाना परोसा – रोटी, साग, चटनी। मुद्दत बाद उन्हें ऐसा खाना मिला था। खा कर अपनी अपनी कथरी ले वे सोने चले गये।
सुबह काम पर जाते समय बहू ने उन्हें एक एक रोटी और गुड़ दिया। चलते समय जग्गू से उसने पूछा – बाबूजी, मालिक आप लोगों को चना और गुड़ ही देता है क्या? जग्गू ने बताया कि मिलता तो सभी अन्न है पर वे चना-गुड़ ही लेते हैं। आसान रहता है खाने में। बहू ने समझाया कि सब
अलग अलग प्रकार का अनाज लिया करें। देवर ने बताया कि उसका काम लकड़ी चीरना है। बहू ने उसे घर के ईंधन के लिये भी कुछ लकड़ी लाने को कहा। बहू सब की मजदूरी के अनाज से एक- एक मुठ्ठी अन्न अलग रखती। उससे बनिये की दुकान से बाकी जरूरत की चीजें लाती। जग्गू की गृहस्थी धड़ल्ले से चल पड़ी। एक दिन सभी भाइयों और बाप ने तालाब की मिट्टी से झोंपड़ी के आगे बाड़ बनाया। बहू के गुण गांव में चर्चित होने लगे। जमींदार तक यह बात पंहुची। वह कभी कभी बस्ती में आया करता था।
आज वह जग्गू के घर उसकी बहू को आशीर्वाद देने आया। बहू ने पैर छू
प्रणाम किया तो जमींदार ने उसे एक हार दिया। हार माथे से लगा बहू ने कहा कि मालिक यह हमारे किस काम आयेगा। इससे अच्छा होता कि मालिक हमें चार लाठी जमीन दिये होते झोंपड़ी के दायें - बायें,तो एक कोठरी बन जाती। बहू की चतुराई पर जमींदार हंस पड़ा। बोला –
ठीक, जमीन तो जग्गू को मिलेगी ही। यह हार तो तुम्हारा हुआ। यह कहानी मेंरी नानी मुझे सुनाती थीं। फिर हमें सीख देती थीं –औरत चाहे घर को स्वर्ग बना दे, चाहे नर्क! मुझे लगता है कि देश, समाज, और
घर को औरत ही गढ़ती है।
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दवाई...

मेरी दवा की दुकान थी और उस दिन दुकान पर काफी भीड़ थी मैं ग्राहको को दवाई दे रहा था.. दुकान से थोड़ी दूर पेड़ के नीचे वो बुजुर्ग औरत खड़ी थी मेरी निगाह दो तीन बार उस महिला पर पड़ी तो देखा उसकी निगाह मेरी दुकान की तरफ ही थी मैं ग्राहकों को दवाई देता रहा लेकिन मेरे मन में उस बुजुर्ग महिला के प्रति जिज्ञासा भी थी की वो वहां खड़े खड़े क्या देख रही है जब ग्राहक कुछ कम हुए तो मैंने दुकान का काउंटर दुकान में काम करने वाले लड़के के हवाले किया और उस महिला के पास गया मैंने पूछा.."क्या हुआ माता जी कुछ चाहिए आपको..मैं काफी देर से आपको यहां खड़े देख रहा हूं गर्मी भी काफी है इसलिए सोचा चलो मैं ही पूछ लेता हूं आपको क्या चाहिए..बुजुर्ग महिला इस सवाल पर कुछ सकपका सी गई फिर हिम्मत जुटा कर उसने पूछा..."बेटा काफी दिन हो गए मेरे दो बेटे हैं दोनो दूसरे शहर में रहते हैं हर बार गर्मी की छुट्टियों में बच्चों के साथ मिलने आ जाते हैं इस बार उन्होंने कहीं पहाड़ों पर छुट्टियां मनाने का निर्णय लिया है बेटा इसलिए इस बार वो हमारे पास नही आएंगे यह समाचार मुझे कल शाम को ही मिला..कल सारी रात ये बात सोच सोच कर परेशान रही.. एक मिनट भी सो नही सकी..आज सोचा था तुम्हारी दुकान से दवाई लूंगी लेकिन दुकान पर भीड़ देखकर यही खड़ी हो गई सोचा जब कोई नही होगा तब तुमसे दवा पूछूंगी..
"हां हां बताइये ना मां जी..कौन सी दवाई चाहिये आपको अभी ला देता हूं..आप बताइये..
"बेटा कोई बच्चों को भूलने की दवाई है क्या..?? अगर है तो ला दे बेटा..भगवान तुम्हारा भला करेगा..
इससे आगे के शब्द सुनने की मेरी हिम्मत ना थी मेरे कान सुन्न हो चूके थे मैं उसकी बातों का बिना कुछ जवाब दिये चुपचाप दुकान की तरफ लौट आया क्योंकि उस बुजुर्ग महिला की दवा उसके बेटों के पास थी जो शायद विश्व के किसी मैडिकल स्टोर पर नही मिलेगी..अब मैं काउंटर के पीछे खड़ा था..मन में विचारों की आंधी चल रही थी लेकिन मैं उस पेड़ के नीचे खड़ी उस मां से नजरें भी नही मिला पा रहा था..मेरी भरी दुकान भी उस महिला के लिए खाली थी..मै कितना असहाय था..या तो ये मैं जानता था या मेरा भगवान..




किचन कालिंग(एक व्यंग्य)
सुबह से लेकर शाम तक, शाम से लेके रात तक, रात से फिर सुबह तक........

सच में ऐसा लगता है, किचन और खाना के अलावा ज़िन्दगी में कुछ और है ही नही। हर औरत की दुविधा, कब और क्या बनाना है। कभी कभी लगता हैं खुद को ही पका डालू।सॉरी । ऐसा बोलना नही चाहती पर ऐसा ही लगता है।

ऐसा नही की मुझे खाना बनाना पसंद नही। मुझे खाना बनाना बहुत पसंद है, और लोग कहते है कि मै बहुत टेस्टी खाना बनाती हूँ। पर हर चीज़ की हद होती है। अगर 24 घंटे में 8 घंटे भी किचन में रहना पड़े तो कैसा लगेगा?

हमारे यहाँ तोरू परवल कोई नही खाता। बैगन गोबी पसंद नही। करेले से तो एलर्जी है। तो क्या रहा? आलू और भिंडी।पापा डाईबेटिक पेशेंट है, इसलिए आलू अवॉयड करते हैं।

पति को छोले पनीर पसंद है, पापा को भाती नही। पापा को मंगोड़ी पापड़ पसंद हैं, पति ने आज तक चखा नही।

अब हमारी प्यारी माताजी।दांतों का इलाज चल रहा हैं। चावल खिचड़ी उपमा, उनको भाता नही। बचा बिचारा दलिया। उसके साथ भी kdi और आलू चाइए।

अब क्या ,आज 10 दिन हो गए, पूरे घर को kdi आलू खिला रही हूँ।

अब सुनो ये रात से सुबह तक के किस्से। कभी रात 12 बजे दही ज़माना याद आता हैं। कभी रात के 1 बजे चने भिगोने।कभी 2 बजे लगता है कहीं किचन की मोटर तो ओंन नही। कभी 3 बजे फ्रीजर से बोतल निकालना। 4 बज गए तो दही अंदर रख दु नही तो खट्टा हो जाएगा।

क्या करूँ मैं और मेरे जैसी बिचारिया।

ये किचन कालिंग यही खत्म नही होता। बच्चे 7 बजे दूध पीते है, माँ पापा 8 बजे चाय। पति देव 9 बजे कॉफ़ी।

बच्चे 10 बजे नास्ता करते है, पति 11 और माँ 12।

सासु माँ 2 बजे लंच करती हैं । बच्चे 3 बजे। थैंक्स गॉड, इनका और पापा का लंच पैक होता हैं।

डिनर की तो पूछो मत। बच्चे 8 बजे। पापा 9 बजे। माँ 10 बजे और पति देव 11 बजे।

12 से 4 की कहानी तो मैं पहले ही सुना चुकी हूँ।

सच बोलू तो ये कोई व्यंग्य नही है। मेरी ज़िंदगी की हकीकत हैं। पहले पहले तो रोती थीं, ये सब अखरता था, सारा दिन चिड़चिड़ी रहती थी। फिर किसी ने मुझे समझाया, जो चीज़ हम बदल नही सकते, उसे accept करो और enjoy करो।इसलिए अब इसे व्यंग्य के रूप में बता कर हँस लेती हूँ और हँसा देती हूँ।











२३ -२४ साल की होते होते, माँ बाप सोचने लगते हैं कि १-२ साल में गुडिया के विवाह के बाद यह खर्चा तो कम हो ही जाएगा ! उस गुडिया के कमरे पर, कब्ज़ा करने की कईयों की इच्छा, ख़ुद माँ का यह कहना कि गुडिया के शादी के बाद, यह कमरा खाली हो जाएगा, इसमे बेटा रह लेगा, किताबों को बाँध के टांड पर रख दो और स्टडी टेबल अपने भाई के बेटे को देने पर, इस कमरे में जगह काफी निकल आयेगी !
यह वही बेटी थी, जो पापा की हर परेशानी की चिंता रखती और हर चीज समय से याद दिलाती थी, उसके पापा को कलर मैचिंग का कभी ध्यान नही रहता, इस पर हमेशा परेशान रहने वाली लडकी, सिर्फ़ २५ साल की कच्ची उम्र में, सबको इन परेशानियों से मुक्त कर गयी !
यह वही बहिन थी जो पूरे हक़ और प्यार के साथ, खिलखिला खिलखिला कर, अपने भाई के जन्मदिन की तैयारी पापा, माँ से लड़ लड़ कर, महीनों पहले से करती थी ! रात को ठीक १२ बजे पूरे घर की लाइटें जला कर हैप्पी बर्थडे की धुन बजाने वाली लडकी, एक दिन यह सारी उछल कूद छोड़कर, गंभीरता का दुपट्टा ओढाकर विदा कर दी गयी .....और साथ में एक शिक्षा भी कि अब बचपना नहीं, हर काम ढंग से करना ऐसा कुछ न करना जिसमे तुम्हारे घर बदनामी हो !
कौन सा घर है मेरा ... ?? नया घर जहाँ हर कोई नया है, जहाँ उसे कोई नही जानता या वह घर, जहाँ जन्म लिया और २५ साल बाद विदा कर दी गयी ! जिस घर से विदाई के बाद, वहां एक कील ठोकने का अधिकार भी उसे अपना नही लगता ! और जिस घर को मेरा घर.. मेरा घर.. कहते जबान नही थकती थी उस घर से अब कोई बुलावा भी नही आता ! क्या मेरी याद किसी को नही आती... ऐसा कैसे हो सकता है ? फिर मेरा कौन है ... उस बेटी के पास रह जाती हैं दर्द भरी यादें ... और अब वही बेटी, अपनी डबडबाई ऑंखें छिपाती हुई, सोचती रहे ...
किस घर को , अपना समझूं ?
मां किस दर को मंजिल मानूं ?
बचपन बीता जिस आँगन में 
उस घर को, अब क्या मानूं ?
बड़े दिनों के बाद आज भैया की याद सताती है ?
पता नहीं क्यों सावन में पापा की यादें आती है ?
शादी के पहले दूसरे साल तक बेटी के घर त्योहारों पर कुछ भेंट आदि लेकर जाने के बाद, उस बच्ची की ममता और तड़प को भूल कर, अपनी अपनी समस्याओं को सुलझाने में लग जाते हैं ! कोई याद नही रखता अपने घर से विदा की हुई बच्ची को ! धीरे धीरे इसी बेटी को अपने ही घर में, मेहमान का दर्जा देने का प्रयत्न किया जाता है, और ड्राइंग रूम में बिठाकर चाय पेश की जाती है !
तुम सब , भले भुला दो ,
लेकिन मैं वह घर कैसे भूलूँ ?
तुम सब भूल गए भैय्या !
पर मैं , वे दिन कैसे भूलूँ ?
मैं इकली और दूर बहुत, उस घर की यादें आती हैं !
पता नहीं क्यों आज मुझे , मां, तेरी यादें आती हैं !
हम अपने देश की संस्कारों की बाते करते नही अघाते हैं पर शायद हम अपने घर के सबसे सुंदर और कमज़ोर धागे को टूटने से बचाने के लिए , उसकी सुरक्षा के लिए कोई उपाय नही करते ! आज आवश्यकता है कि बेटे से पहले बेटी के लिए वह सब दिया जाए जिसकी सबसे बड़ी हकदार बेटी है !

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