Wednesday, 30 May 2018

सामने दरख्त हैं और छाँव भी घनी है,


सामने दरख्त हैं और छाँव भी घनी है,
वर्षों से हम धूप मे यूं ही खड़े हुए हैं।

तालीम पाने मे गुजारी जिन्दगी आधी,
माँ बाप बूढ़े हो गये,सपने मरे हुए हैं।

पगडंडियाँ तब्दील हैं,चौड़ी सड़क बन,
खेत क्यारी और बगीचे,फिर सहमें हुए हैं

सूरतें बाहर गयीं थी, जो धन कमाने को,
लिपटे हुए कफन मे सब लौट आये हैं।

पैर की पायल बिकी,कान का झुमका बिका,
घर की इज्ज़त ही बची,नीलाम सब हो आये हैं।

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