वक्त
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चला चली की बेला नजदीक थी ।अस्सी साल के मौलाना साहब झिंगली खाट पर निश्चेत लेटे थे। ऐसा लग रहा था जैसे किसी कंकाल पर चादर डाल दी गयी हो ।सगे संबंधी उनके पास जुटे पल-पल मौत की प्रतीक्षा कर रहे थे। मौलाना साहब के चेहरे पर कोई उलझन लगातार जाला बुने जा रही है जो चेहरे पर चिपकी स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रही थी। देखने वाले समझ गये, मौलाना साहब जरूर किसी कश्मकश में है ....लेकिन क्या...? कोई समझ नहीं पा रहा था।
अचानक उन्होंने अपने पास सबसे छोटे पोते असलम को उंगली के इशारे से बुलाया।
" हरेराम पंडत"
"हरेराम पंडत" जिसने भी सुना उसके चेहरे पर अविश्वास की लकीरें खिंच गयीं।लगता है मौलाना साहब मरने से पहले सठिया गए हैं। कानाफूसी शुरू हो गयी।
"अंत समय दुश्मन की ख्वाहिश"
मौलाना साहब वक्त की नजाकत को देखते हुए मरियल ही सही किंतु दृढ़ आवाज में बोले-" बुलाकर लाओ पंडत को"
अब उनकी बात कौन टालता...
आधे घंटे बाद असलम पंडत को साइकिल के कैरियर पर बैठाये हुए हाजिर हुआ। मौलाना साहब के हमउम्र पंडत भी चलने फिरने से लाचार... किसी तरह उन्हे मौलाना के करीब कुर्सी पर बैठाया गया।
पंडित हरेराम को देखकर मौलाना साहब में जाने कहां से ताकत आ गई कि वह दीवार का सहारा लेकर बैठने लगे मगर ताब इतनी भी न थी लिहाजा लुढ़क गये। घरवालों ने उन्हें सहारा देकर किसी तरह बैठाया ।मौलाना साहब ने एक नजर घूरकर पंडत को देखा फिर बोले -"अबे पंडत.... अब मय्यत में शामिल होने के लिए भी न्यौता देना पड़ेगा।"
आवाज पंडत के जिगर को चीरकर निकल गयी।पंडत को महसूस हुआ गले में जैसे कुछ अटक - सा गया है। बड़ी मुश्किल से कह पाए -"कैसे हो शफीक मियाँ?"
"अब तो चला चली की बेला है ।" मौलाना एक खोखली हंसी हंसे फिर आगे जोड़ा- "मगर कुछ पुराना हिसाब था जिसे चुकता किए बिना.... मरा भी तो नहीं जाता।"
"कौन सा हिसाब....हमारी कोई देनदारी नहीं ?"
"देनदारी कौन कहता है...?बस इतना जानना था ...क्या हमारे रिश्ते इतने कमजोर थे पंडत ?जो गांव के मंदिर- मस्जिद विवाद मे ढह गये।"
शब्दों की चोट बहुत मारक थी। पूरा गांव जिन पंडत के आगे हाथ जोड़कर साष्टांग प्रणाम करताथा... उन पंडत हरेराम ने इस समय शफीक मियाँ के आगे हाथ जोड़ दिये।आंखों का सैलाब जाने कैसे फूट पड़ा।
"श...फी...क..मियाँ...।"
बचपन मे हमसे दोस्ती के लिए कितना पीटे गये थे...याद है...पर कभी साथ न छोड़ा...फिर ऐसा क्या हुआ पंडत ?" शफीक मियाँ की आवाज जैसे कुएं से आ रही थी।
"अपना जवान बेटा खोया था शफीक मियाँ"
"हमने भी तो खोया.... अनवर आपका भी तो पोता ही था"
" जानता हूं... जानता हूं.... याद मत दिलाओ...घर आता था तो दादा - दादा कह कर कांधे पर चढ़ जाता था...."
"ये सांप्रदायिक आग किसका घर छोड़ती है ?."
पंडत ने सिर्फ सर हिला दिया।गला तो रुंध गया था...क्या कहते...
" हमने भी खोया ...तुमने भी खोया.. पाने वाले तो कोई और थे... ... फिर भी हम बीस साल तक हवा देते रहे ।"
"मुकदमा तो दोनों तरफ से दायर हुआ था ...दोषी अकेले हमे ही ठहराओगे मियाँ"
"पंडत ...इन बीस सालों मे थक गया हूं...टूटा भी हूं...अदालत से अगर जीता भी तो क्या जीता...सबकुछ हार के.....हम हर हाल मे हारे हैं पंडत.....आखिर उन रिश्तों का क्या...जिन पर बीस साल से बर्फ जमी है।"
पंडत ने हाथ आगे बढ़ाकर शफीक मियाँ की हथेली पर रख दिया....शफीक मियाँ को लगा जैसे अपना ही बिछड़ा भाई आज उनके सामने है।भावातिरेक में आंसू बहे तो पंडत की हथेली पर टपक गये।
"माफ करना पंडत....मलेच्छ के आंसू हैं....घर जाकर पानी में गंगाजल डालकर नहा लेना।"
"ओये मुल्ले होश में...सात महीने तुझसे बड़ा हूं...थप्पड़ मारूंगा...जलील करने को बुलाया है।"
पंडत ने हथेली की पकड़ को और मजबूत किया....
काश! पंडत...बड़प्पन दिखाते हुए ये थप्पड़ उसदिन मारा होता तो....."आगे के शब्द हलक मे अटककर रह गये।
"बस शफीक मियाँ बस...वो एक तूफान था जो गुजर गया...बहुत कुछ तहस नहस हुआ...क्या मेरा क्या तुम्हारा......वक्त की आंच में तुम भी जले हम भी.अब उन जख्मों को मत कुरेदो.....इन बीस सालों मे कभी चैन से हम भी नही सोये....एक बोझ था आज हल्का हुआ......माफ करना हमें...."
" अब तो हम अल्लाह के घर जा रहे...ये बच्चा लोग न....आज से तुम्हारे हवाले...और सुन पंडत हम माफी न मांगेगे तुझसे...छोटे होने का कुछ तो फायदा लेने देगा"
पंडत की आंखें डबडबा आयीं।बस हाथों के इशारे से आश्वासन दे पाये।
"पक्का...अगर कुछ गड़बड़ की तो साल दो साल बाद तू भी वहीं आएगा...तब निपटूंगा...।"
"अबे साले...अस्सी साल के बूढ़े को बुलाकर लेक्चर पेल रहा है...ये भी नहीं पूछा कि पंडत चाय पियोगे...बस तबसे मरने की बातें।"
"मुझे लगा शायद हमारे घर की चाय..."
"इस बार तुझे नहीं छोडूंगा साले मुल्ले...बोटी छोड़ तेरे घर का क्या नहीं खाया...याद है बचपन की घी चुपरी रोटी...आज मजाक उड़ाता है...जरा ठहर..."
पंडत झटके से कुर्सी से उठे। एक हाथ हवा में शफीक मियाँ की तरफ उछाला।तमाचा पड़ने ही वाला था...घर वाले सकपका गये ।ये क्या हो रहा है?
"पंडत दुश्मनी भूलता है कहीं..."
मगर पंडत झुके और शफीक मियाँ को गले लगाकर जोर से भींच लिया।
"अब चैन से मर सकूंगा पंडत"
दोनो लंगोटिया यार फूट - फूट कर रो रहे थे।आंखों से सिर्फ आंसू ही नहीं.... बहुत कुछ था जो बह जाना चाहता था।
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चला चली की बेला नजदीक थी ।अस्सी साल के मौलाना साहब झिंगली खाट पर निश्चेत लेटे थे। ऐसा लग रहा था जैसे किसी कंकाल पर चादर डाल दी गयी हो ।सगे संबंधी उनके पास जुटे पल-पल मौत की प्रतीक्षा कर रहे थे। मौलाना साहब के चेहरे पर कोई उलझन लगातार जाला बुने जा रही है जो चेहरे पर चिपकी स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रही थी। देखने वाले समझ गये, मौलाना साहब जरूर किसी कश्मकश में है ....लेकिन क्या...? कोई समझ नहीं पा रहा था।
अचानक उन्होंने अपने पास सबसे छोटे पोते असलम को उंगली के इशारे से बुलाया।
" हरेराम पंडत"
"हरेराम पंडत" जिसने भी सुना उसके चेहरे पर अविश्वास की लकीरें खिंच गयीं।लगता है मौलाना साहब मरने से पहले सठिया गए हैं। कानाफूसी शुरू हो गयी।
"अंत समय दुश्मन की ख्वाहिश"
मौलाना साहब वक्त की नजाकत को देखते हुए मरियल ही सही किंतु दृढ़ आवाज में बोले-" बुलाकर लाओ पंडत को"
अब उनकी बात कौन टालता...
आधे घंटे बाद असलम पंडत को साइकिल के कैरियर पर बैठाये हुए हाजिर हुआ। मौलाना साहब के हमउम्र पंडत भी चलने फिरने से लाचार... किसी तरह उन्हे मौलाना के करीब कुर्सी पर बैठाया गया।
पंडित हरेराम को देखकर मौलाना साहब में जाने कहां से ताकत आ गई कि वह दीवार का सहारा लेकर बैठने लगे मगर ताब इतनी भी न थी लिहाजा लुढ़क गये। घरवालों ने उन्हें सहारा देकर किसी तरह बैठाया ।मौलाना साहब ने एक नजर घूरकर पंडत को देखा फिर बोले -"अबे पंडत.... अब मय्यत में शामिल होने के लिए भी न्यौता देना पड़ेगा।"
आवाज पंडत के जिगर को चीरकर निकल गयी।पंडत को महसूस हुआ गले में जैसे कुछ अटक - सा गया है। बड़ी मुश्किल से कह पाए -"कैसे हो शफीक मियाँ?"
"अब तो चला चली की बेला है ।" मौलाना एक खोखली हंसी हंसे फिर आगे जोड़ा- "मगर कुछ पुराना हिसाब था जिसे चुकता किए बिना.... मरा भी तो नहीं जाता।"
"कौन सा हिसाब....हमारी कोई देनदारी नहीं ?"
"देनदारी कौन कहता है...?बस इतना जानना था ...क्या हमारे रिश्ते इतने कमजोर थे पंडत ?जो गांव के मंदिर- मस्जिद विवाद मे ढह गये।"
शब्दों की चोट बहुत मारक थी। पूरा गांव जिन पंडत के आगे हाथ जोड़कर साष्टांग प्रणाम करताथा... उन पंडत हरेराम ने इस समय शफीक मियाँ के आगे हाथ जोड़ दिये।आंखों का सैलाब जाने कैसे फूट पड़ा।
"श...फी...क..मियाँ...।"
बचपन मे हमसे दोस्ती के लिए कितना पीटे गये थे...याद है...पर कभी साथ न छोड़ा...फिर ऐसा क्या हुआ पंडत ?" शफीक मियाँ की आवाज जैसे कुएं से आ रही थी।
"अपना जवान बेटा खोया था शफीक मियाँ"
"हमने भी तो खोया.... अनवर आपका भी तो पोता ही था"
" जानता हूं... जानता हूं.... याद मत दिलाओ...घर आता था तो दादा - दादा कह कर कांधे पर चढ़ जाता था...."
"ये सांप्रदायिक आग किसका घर छोड़ती है ?."
पंडत ने सिर्फ सर हिला दिया।गला तो रुंध गया था...क्या कहते...
" हमने भी खोया ...तुमने भी खोया.. पाने वाले तो कोई और थे... ... फिर भी हम बीस साल तक हवा देते रहे ।"
"मुकदमा तो दोनों तरफ से दायर हुआ था ...दोषी अकेले हमे ही ठहराओगे मियाँ"
"पंडत ...इन बीस सालों मे थक गया हूं...टूटा भी हूं...अदालत से अगर जीता भी तो क्या जीता...सबकुछ हार के.....हम हर हाल मे हारे हैं पंडत.....आखिर उन रिश्तों का क्या...जिन पर बीस साल से बर्फ जमी है।"
पंडत ने हाथ आगे बढ़ाकर शफीक मियाँ की हथेली पर रख दिया....शफीक मियाँ को लगा जैसे अपना ही बिछड़ा भाई आज उनके सामने है।भावातिरेक में आंसू बहे तो पंडत की हथेली पर टपक गये।
"माफ करना पंडत....मलेच्छ के आंसू हैं....घर जाकर पानी में गंगाजल डालकर नहा लेना।"
"ओये मुल्ले होश में...सात महीने तुझसे बड़ा हूं...थप्पड़ मारूंगा...जलील करने को बुलाया है।"
पंडत ने हथेली की पकड़ को और मजबूत किया....
काश! पंडत...बड़प्पन दिखाते हुए ये थप्पड़ उसदिन मारा होता तो....."आगे के शब्द हलक मे अटककर रह गये।
"बस शफीक मियाँ बस...वो एक तूफान था जो गुजर गया...बहुत कुछ तहस नहस हुआ...क्या मेरा क्या तुम्हारा......वक्त की आंच में तुम भी जले हम भी.अब उन जख्मों को मत कुरेदो.....इन बीस सालों मे कभी चैन से हम भी नही सोये....एक बोझ था आज हल्का हुआ......माफ करना हमें...."
" अब तो हम अल्लाह के घर जा रहे...ये बच्चा लोग न....आज से तुम्हारे हवाले...और सुन पंडत हम माफी न मांगेगे तुझसे...छोटे होने का कुछ तो फायदा लेने देगा"
पंडत की आंखें डबडबा आयीं।बस हाथों के इशारे से आश्वासन दे पाये।
"पक्का...अगर कुछ गड़बड़ की तो साल दो साल बाद तू भी वहीं आएगा...तब निपटूंगा...।"
"अबे साले...अस्सी साल के बूढ़े को बुलाकर लेक्चर पेल रहा है...ये भी नहीं पूछा कि पंडत चाय पियोगे...बस तबसे मरने की बातें।"
"मुझे लगा शायद हमारे घर की चाय..."
"इस बार तुझे नहीं छोडूंगा साले मुल्ले...बोटी छोड़ तेरे घर का क्या नहीं खाया...याद है बचपन की घी चुपरी रोटी...आज मजाक उड़ाता है...जरा ठहर..."
पंडत झटके से कुर्सी से उठे। एक हाथ हवा में शफीक मियाँ की तरफ उछाला।तमाचा पड़ने ही वाला था...घर वाले सकपका गये ।ये क्या हो रहा है?
"पंडत दुश्मनी भूलता है कहीं..."
मगर पंडत झुके और शफीक मियाँ को गले लगाकर जोर से भींच लिया।
"अब चैन से मर सकूंगा पंडत"
दोनो लंगोटिया यार फूट - फूट कर रो रहे थे।आंखों से सिर्फ आंसू ही नहीं.... बहुत कुछ था जो बह जाना चाहता था।
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