Thursday, 20 October 2016

जाने किस बात की सजा देती हो?

जाने किस बात की सजा देती हो? 
मुस्कुराती हुई आँखोँ को रूला देती हो।


    देखना चाहता हूँ जब भी नजर भरके , 
    किस अंदाज से नजरोँ को झुका देती हो? 



जब भी तोड़ता हूँ गुलशन से गुलाब , 
धीरे से आकर काँटा चुभा देती हो।




     ख्यालोँ मेँ आकर जख्म देती हो, 
     फिर जाने किस मर्ज की दवा देती हो?



सोए हुए है यादोँ मेँ तुम्हारी , 
साँस की छुअन से जगा देती होँ। 



    ढूढ़ा है वादी मेँ जब भी तुमको,
    जुग्नू की तरहा रास्ता दिखा देती हो। 



"अंजान" चाहता है लिखना गजल तुम पे, 
दबे पाँव आकर क्यूँ शेअरोँ को मिटा देती हो।।

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