Friday, 14 October 2016

– उसके बिना

कहानी – उसके बिना (


           
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“तुमने तो इस लड़के को एकदम पैरासाइट बना दिया है. अभी तुम इसके लिए हर तरफ़ से ढाल बन कर खड़ी रहती हो. कल को बाहर निकलेगा, नौकरी-चाकरी करेगा तो अपने इस अपाहिजपने से दो कौड़ी का साबित होगा.”
बहुत एहतियात के साथ सुनील ने जया को गाड़ी की पिछली सीट पर बैठाया, फिर भी जया के चेहरे पर दर्द की लकीरें उभर आईं. सुनील परेशान हो उठा, “टांकें खिंच रहे हैं जया?”
“नहीं, ठीक है.” जया अपने आपको संभालती हुई बोली.
“रुको, मैं पीछे कुशन लगा देता हूं. फिर तुम आराम से सिर टिका लो. बस, एक घंटे में घर पहुंच जाएंगे.”
कुशन पर सिर टिका कर जया ने आंखें बंद कर लीं.
“गाड़ी बहुत आराम से चलाना.” ड्राइवर को बोलकर सुनील ने आगे की सीट पर बैठे बेटे के हाथ से रैपर लेकर जया के ऊपर डाल दिया और एक दुलार भरी निगाह जया के चेहरे पर डालकर उसका हाथ अपने हाथ में लेकर धीरे-धीरे सहलाने लगा.
आज पूरे दस दिन बाद जया नर्सिंग होम से डिस्चार्ज होकर घर आ रही थी. आठ दिन पहले यूटेरस निकालने के लिए उसका ऑपरेशन हुआ था. कुछ तो ऑपरेशन की कमज़ोरी थी, कुछ शायद स्त्रीत्व से जुड़ा एक अहम् हिस्सा शरीर से निकल जाने की वजह से वह एकदम बेजान-सी हो गई थी.
पिछले डेढ-दो साल से काफ़ी परेशानी झेलने के बाद डॉक्टरों ने यही सलाह दी कि यूटेरस निकलवा दिया जाए. इसके अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं था. जानती तो वह भी थी, लेकिन दस-बारह दिनों तक घर छोड़ कर हॉस्पिटल में रहने की बात सोच कर ही वह कांप जाती. फिर भी ऑपरेशन तो करवाना ही था. इधर बच्चों की जाड़े की छुट्टियां भी थीं.
सुनील ने भी ऑफ़िस से छुट्टी ले ली थी. एक बहुत बड़ा काम था यह सबके लिए. चलो हर महीने की परेशानी और दर्द से निजात तो मिली. ऑपरेशन भी ठीक से हो गया था, टांकें भी काफ़ी हद तक सूख चुके थे. बस, कुछ दिनों के बेड रेस्ट के बाद वह फिर पहले की तरह सामान्य ज़िंदगी जीने लगेगी.
पूरे दस दिनों तक घर से दूर रहने के बाद वह आज अपने घर जा रही थी. उसकी ख़ुशी का तो कोई ठिकाना ही नहीं होना चाहिए था, लेकिन जया का दिल आशंका और चिंता के मारे बैठा जा रहा था. उसके बिना उसके घर की जो दुर्दशा हुई होगी, यह सोच-सोच कर उसकी घबराहट बढ़ने लगी थी.
वह हमेशा यही कहती थी कि वह दो नहीं, तीन बच्चों को पाल रही है. सच, सुनील अपनी उम्र और अनुभव की सीमा के बाहर अपनी ज़रूरतों के मामले में एक बच्चे की तरह ही निर्भर था जया पर. जया को याद नहीं पड़ता कि शादी के बाद वह कभी इतने लंबे समय तक घर और सुनील को छोड़कर बाहर रही हो. शादी के बाद जब भी वह मायके गई तो सुनील के साथ ही गई. तीन-चार दिन रुककर फिर सुनील के साथ ही वापिस आ जाती. भाभी अक्सर चुटकी लेती, “ये क्या कुंवरजी, क्या दो-चार रोज़ भी हमारी ननद रानी को आप हमारे पास नहीं छोड़ सकते? रात को अकेले बिस्तर पर चींटियां काटती हैं क्या?” जवाब में सुनील बस मुस्कुरा देते.
पांच भाई-बहनों में सबसे छोटे सुनील बस घर के सबसे छोटे होकर ही रह गए थे. छोटी-छोटी बात पर मां पर निर्भर रहना, हर बात उनसे पूछ कर करना उनकी कमज़ोरी-सी बन गई थी. कभी-कभी बाबूजी मां पर बहुत ग़ुस्सा भी हो जाते थे, “तुमने तो इस लड़के को एकदम पैरासाइट बना दिया है. अभी तुम इसके लिए हर तरफ़ से ढाल बन कर खड़ी रहती हो. कल को बाहर निकलेगा, नौकरी-चाकरी करेगा तो अपने इस अपाहिजपने से दो कौड़ी का साबित होगा.”
लेकिन मां हमेशा अपनी स्नेहिल मुस्कान बिखेरती आश्‍वस्त-सी रहती, “मैं इसके लिए इतनी गुणी और समझदार बहू ढूंढ़कर लाऊंगी, जो मेरे बाद मुझसे भी बढ़कर इसकी देखभाल करेगी.”
जया की काफ़ी तारीफ़ सुनने के बाद और ख़ुद भी अपनी अनुभवी आंखों से बहुत जांच-परख कर ही उन्होंने उसे अपनी बहू के रूप में चुना था. शादी के दूसरे दिन ही उन्होंने जया को अलग बुलाकर अपने लाडले और नाज़ुक मिजाज़ बेटे की सारी ज़िम्मेदारी उस पर सौंप दी थी और जया ने भी कभी उन्हें निराश नहीं किया. पति के रूप में सुनील बेहद प्यार करने वाले, अपनी सामर्थ्य भर पत्नी की हिफाज़त और इज्ज़त करने वाले थे. ऐसे मासूम और भोले-भाले पति के लिए तो कोई भी पत्नी अपनी पूरी ज़िंदगी न्यौछावर कर के भी अपने आपको धन्य मानती. ऑफ़िस जाने से पहले तैयार होते समय जब सुनील जया से पूछता, “जया, ज़रा देखकर बताओ तो इस डार्क ब्राउन पैंट पर कौन-सी शर्ट ज़्यादा ठीक लगेगी?” तो वह मन ही मन निहाल होती हुई बनावटी ग़ुस्सा दिखाती, “अब तुम अपने कपड़े तो कम से कम अपने मन से पहना करो. आख़िर जेन्ट्स के कपड़ों के बारे में मुझे क्या मालूम?”
उसका रुमाल, पेन, गाड़ी की चाबी और ब्रीफकेस सब जया के भरोसे ही रहता. टाई तक वह जया के हाथ से ही बंधवाने के लिए किचन तक चला आता. हाथ का काम रोक कर जया झुंझलाती तो उसकी ख़ुुशामद करता, “अरे यार, इसी बहाने तुम कम से कम थोड़ी और देर तक मेरे इतने क़रीब आ जाती हो.”
ठीक यही आदत बच्चों ने भी पाल रखी थी. बेटी दिव्या इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रही थी और बेटा शान्तनु नौवीं में था. लेकिन ये तीनों ही पूरी तरह उस पर निर्भर थे. खाने की मेज़ पर अगर जया एक-एक चीज़ डोंगे से निकाल कर उनकी प्लेट में न परोसे तो वे शायद अपने आप पूरा खाना भी न खा पाएं. कभी-कभी तो जया सचमुच बहुत खीझ जाती, “हद हो गई बावलेपन की. आख़िर मैं कहां तक तुम लोगों के पीछे-पीछे लगी रहूंगी.”
दिव्या की हालत देख कर उसे सचमुच कभी-कभी बहुत चिंता होती. इसकी उम्र की ही थी वह, जब ब्याह कर आई थी. पूरा घर कितनी कुशलता से सम्भाल लिया था उसने. लेकिन दिव्या है कि बस पढ़ाई-लिखाई और मौज-मस्ती के अलावा कोई शउर ही नहीं है इस लड़की में. उसे दालों और मसालों तक की पहचान नहीं थी अभी तक. जब भी वह दिव्या की हमउम्र लड़कियों के बारे में सुनती कि फलां लड़की तो खाना बना लेती है, फलां बुनाई-सिलाई कर लेती है, तो उसे बड़ी को़फ़्त होती. कितनी बार वह सोचती कि इस बार छुट्टियों में ज़रूर दिव्या से कुछ घर के काम करवाएगी. लेकिन हर बार अपनी नाज़ुक छुईमुई-सी बेटी को रसोई के कामों में धकेलने पर उसका मन कच्चा होने लगता. ठीक है, मेरी बेटी ऐसी ही सही. जब अपने ऊपर पड़ेगी तो वह भी सब सीख लेगी. अभी तो मैं हूं न सब कुछ करने के लिए.
सच बात तो यह है कि उसे अपने पति और बच्चों के लिए खटने में एक असीम तृप्ति मिलती थी. जब भी वह कहती, मैं तो काम करते-करते मरी जा रही हूं, तो मन ही मन वह कहीं बहुत गौरवान्वित होती रहती थी कि धन्य है वह औरत, जिसे अपनी गृहस्थी में दम मारने की भी फुर्सत न मिले. क़िस्मत वाली औरतों को ही यह सुख नसीब होता है.
हर रोज़ सुनील और बच्चों के बाहर निकल जाने के बाद पूरे घर की सफ़ाई की कवायद शुरू हो जाती थी. शान्ति तो नाम की कामवाली थी. बस, नपा-तुला झाडू-पोछे का काम निपटाकर फटाफट अधजले और चिकनाई लगे बर्तन धोए और भाग खड़ी हुई. सोफों पर कुशन आड़ा-तिरछा रखा हो, चद्दरें सलवटों से भरी हों- उसे किसी चीज़ से कोई मतलब नहीं.
दोनों बच्चों के कमरों में उनका सारा बिखरा सामान एक-एक कर यथास्थान सहेजना उसकी आदत बन चुकी थी. उसे पता है कि थोड़ी देर बाद बच्चे आएंगे और फिर सारा सामान पूरे कमरे में बिखेर देंगे. शान्ति अक्सर टोकती, “अरे मेम साब, अभी ये सनी बाबा का बैट-बॉल आप अलमारी में रख रही हैं, शाम को फिर सनी बाबा इसे निकाल कर ले जाएंगे और फिर यहीं कोने में पटक देंगे. उसे वहीं दरवाज़े के पीछे ही रहने दिया करो. क्यों रोज़-रोज़ की यह बेकार की उठा-पटक करती हो?”
वह शान्ति को तरेरती, “ऐसे तो फिर तू भी रोज़ झाडू-फटका मत किया कर. बर्तन भी मत धोया कर, क्योंकि उन्हें दोबारा तो गन्दा होना ही है. और वैसे भी तू जिस तरह के काम करके जाती है, वह तो मैं ही
जानती हूं.”
जया को शान्ति का काम ज़रा भी नहीं पसन्द था. लेकिन वह क्या करती? उसके मन का काम तो दुनिया की कोई भी औरत नहीं कर सकती. फिर रोज़-रोज़ काम वाली बदलने से अच्छा है, जो मिली है उसी से काम चलाया जाए. नर्सिंग होम जाने से पहले उसने शान्ति की काफ़ी ख़ुशामद की थी कि उसके न रहने पर वह दोनों टाइम का खाना किसी तरह बना दिया करे. उसे अलग से कुछ एडवांस पैसे भी उसने दे दिए थे. शान्ति ने पहले तो टाइम न होने की दलील दी, फिर एहसान जताते हुए बोली, “ठीक है, दस-बाहर दिन की बात है. अब मेरे रहते बच्चे भूखे रहें, यह भी तो मुझसे न देखा जाएगा.”
नर्सिंग होम में पड़ी-पड़ी जया दिन-रात बस अपने घर और बच्चों के बारे में ही सोचती रहती. वहां का कोई ज़िक्र छेड़ने पर भी उसे घबराहट होती थी. पता नहीं क्या सुनने को मिले. सुनील स्वयं ही दिन में आठ-दस बार उसे दिलासा दिया करता, “तुम घर की चिंता बिल्कुल मत किया करो, वहां सब ठीक-ठाक चल रहा है. बच्चे भी मज़े में हैं.” दिव्या और शान्तनु भी जब आते तो बस उसी को लेकर चिंतित रहते, “मम्मा, तुम बस अपना ख़याल रखो. हम सब वहां एकदम ठीक से रह रहे हैं.”
क्या खाक ठीक से होंगे उसके बिना? आने से पहले वह सारी ज़रूरी दवाओं के साथ फ़र्स्ट एड बॉक्स तैयार कर तीनों को बार-बार बता कर आई थी. शान्तनु को तो रोज़ ही कहीं न कहीं चोट लगती है. दिव्या को भी एलर्जी की शिकायत है. सुनील को बी.पी. की रेग्युलर दवा लेनी होती है. पता नहीं, सब कैसे चल रहा होगा?
बच्चों से हट कर अब जया का ध्यान अपने बगीचे पर चला गया. एक-एक पौधे की हिफाज़त वह किसी बच्चे से कम नहीं करती. जाड़ों के कितने फूल उसने अभी लगाए हैं. पैंजी, नेस्टर्शियम, डहेलिया, कैलीफोर्नियन, पॉपी, रंग-बिरंगे गुलाब और न जाने क्या-क्या. सर्दियों की हल्की पीली धूप में जब उसके लगाए फूल अपनी छटा बिखेरते हैं तो देखने वाला मंत्रमुग्ध हो जाता है. बच्चों के साथ सुनील भी उनकी ख़ूूबसूरती के क़ायल हो जाते हैं, लेकिन मजाल है कभी किसी ने उसके फूलों को थोड़ा-सा पानी भी दिया हो, कभी एक तिनका भी तोड़ा हो. उन्हें क्या पता, पूरी-पूरी शाम कितनी मेहनत करती है जया इन फूलों के लिए. अब सारा बगीचा वीरान हो गया होगा. दस दिन तक पानी न मिल पाने पर क्या पौधे टिक पाएंगे? चलो अब इतना नुक़सान तो होना ही है. बस, वह एक बार पूरी तरह ठीक हो जाए फिर तो वह सब कुछ संभाल ही लेगी.
“जया उठो, घर आ गया.” अचानक सुनील के कोमल स्पर्श से वह चौंक उठी. गाड़ी अन्दर पोर्टिको में आ चुकी थी. हॉर्न की आवाज़ सुन कर दिव्या भागती हुई बाहर आ गई.
“वेलकम होम मम्मा.” वह चहकती हुई बोली. जया ने एक उड़ती हुई निगाह बगीचे पर डाली. अरे! सारे फूल उसी तरह लहलहा रहे थे, जैसा वह उन्हें छोड़ कर गई थी. उसका मन थोड़ा हल्का हो गया. शायद शान्ति ने पौधों को पानी देने का काम ले लिया होगा.
ड्रॉइंगरूम से होते हुए अपने बेडरूम तक के रास्ते में उसने हर तरफ़ एक सरसरी निगाह डाली. सभी चीज़ें तो उसी तरह करीने से चमक रही थीं. बेडरूम में भी हर एक चीज़ यथास्थान थी. न सुनील के कपड़े बेड पर पड़े थे और न ही उसकी फ़ाइलें ड्रेसिंग टेबल पर फैली थीं. बाथरूम भी एकदम चमक रहा था. एक-एक टाइल्स वह रोज़ अपने हाथों से घिसती थी, बेसिन और पॉट ब्रश से रगड़-रगड़कर चमकाती थी. उसके अलावा तो बाथरूम में कोई दूसरा हाथ भी नहीं लगाता था. फिर उसके बिना सब कुछ इतना साफ़-सुथरा? वह बेड पर आकर लेट गई तो सुनील उसे लिहाफ़ से ढंकता हुआ प्यार से मुस्कुराया, “अब तुम आ गई हो जया, सहेजो अपनी गृहस्थी.”
फिर उसके सिर पर हाथ फेरता हुआ क्षमायाचना भरे स्वर में बोला, “हम सबने बहुत कोशिश की जया कि तुम्हें कोई शिकायत का मौक़ा न दें, हम तीनों जी-जान से तुम्हारी गृहस्थी सम्भालते रहे, लेकिन तुम्हारे जैसा कुछ भी न हो सका. बस, अब तुम पूरी तरह ठीक हो जाओ और फिर सम्भालो सब कुछ. सच, पहली बार जाना कि हम सब कितने असहाय और अधूरे हैं तुम्हारे बिना.” कहते-कहते सुनील का स्वर भीग-सा गया.
सुनील क्षमायाचना कर रहा है या व्यंग्य, यह जया समझ नहीं पा रही थी. सब कुछ कितना अच्छे से तो सम्भाला है इन लोगों ने. तभी दिव्या चाय की ट्रे लेकर अन्दर आई, “लो मम्मा, मेरे हाथ की गरम-गरम चाय पीओ और ये सैंडविचेज़ मैंने बनाए हैं, खाकर देखो.”
जया एकटक अपनी बेटी को देखती रही. दस दिनों में ही एकदम से कितनी बड़ी लगने लगी थी उसकी बेटी. थोड़ी देर में शान्तनु हाथ में सब्ज़ी और फलों से भरी टोकरी लेकर अन्दर दाख़िल हुआ, “मम्मी, देखो मैं भी उसी कोने वाले बाबा से सब्ज़ी और फल ख़रीदता हूं, जिससे तुम ख़रीदती हो. एकदम ताज़ी और बाज़ार से एक रुपए सस्ती.”
टोकरी एक तरफ़ रख कर वह जया के पैरों से लिपटता हुआ बोला, “आपके बिना यह घर अधूरा-सा लगता था मम्मा. आप आ गई हैं, अब फिर सब कुछ पहले जैसा हो जाएगा.”
तभी बाहर से शान्ति की आवाज़ आई, “मेमसाब आ गई हैं क्या? अन्दर आ जाऊं मेमसाब?” और वह पर्दा उठा कर अन्दर आ गई. सुनील और बच्चे उठकर बाहर चले गए. जाते-जाते दिव्या शान्ति को हिदायत देती गई, ज़्यादा बक-बक करके मम्मा को तंग मत करना शान्ति, अभी उन्हें बहुत कमज़ोरी है.” ज़मीन पर धप् से बैठती हुई शान्ति बोली, “अरे मैं भी जानू हूं बिटिया, एत्ता बड़ा आपरेसन हुआ है, कमज़ोरी तो होगी ही.” शान्ति की ओर एहसानभरी निगाहों से देखती हुई जया बोली, “अभी एक ह़फ़्ता रसोई का काम और देख लेना शान्ति. सचमुच मुझे बहुत कमज़ोरी लग रही है. मैं तुम्हारा हिसाब ठीक से कर दूंगी.”
“अरे काहे का हिसाब मेमसाब? मुझसे तो किसी ने कुछ करवाया ही नहीं. दिव्या बिटिया ने कहा कि बस, मैं आटा गूंथ दिया करूं और सब्ज़ियां काट दिया करूं, सो मैंने तो बस इतना ही किया.”
“और खाना कौन बनाता है?” जया के आश्‍चर्य का ठिकाना न था.
“तुम्हारी बिटिया और साहब मिल कर बनाते हैं मेमसाब. और क्या कोई बाहर वाला आकर बनाता है? हमसे तो जितना कहा, उतना कर दिया. बाकी मेेमसाब आपके घर के परानी सब बहुत लायक हैं. दिव्या बिटिया तो जिस घर में जाएगी, समझो उजाला कर देगी. आपकी ही सारी आदतें पाई हैं बिटिया ने. पूरा दिन आपकी तरह खटर-पटर करती रहती है. सनी बाबा अपना कमरा ख़ुद ही साफ़ करते हैं. बाहर से सौदा लाने का ज़िम्मा भी तो उन्हीं का है.”
जया की बंद आंखें देखकर शान्ति का प्रताप रूका, “अच्छा अब आप थोड़ा आराम कर लो मेमसाब. मैं भी जाकर बर्तन निपटा लूं.”
जया ने अपना मुंह लिहाफ़ के अन्दर कर लिया. उसके आंसुओं से तकिया भीगने लगा था. उसके बिना भी उसके पति और बच्चों ने उसका घर-संसार इतने करीने से संवारा, यह उसके लिए कितने संतोष और सुख की बात थी. फिर उसके मन में कहीं कुछ दरक-सा क्यों रहा था?

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